Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 198
________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १७७ प्रकार सिद्धसेनजीकृत निश्चयद्वात्रिंशिका के अर्थको विचारके आकाशसे ही दिशाका काम सिद्ध होता है; ऐसा जानना । और इस प्रकारके सिद्धान्तको स्वीकार करनेवालोंके कालद्रव्य कथंचित् कार्य ही है; अर्थात् मानना ही चाहिये ऐसा विचार होगा और इसीसे परत्व अपरत्वकी सिद्धि होगी । इसलिये "कालश्वेत्येके" यह सूत्र अनपेक्षित द्रव्यार्थिक नयसे ही कहा गया है; इस प्रकार सूक्ष्म दृष्टिसे विचारलेना चाहिये ।। १३ ।। अथ कालद्रव्याधिकारं दिगम्बरप्रक्रिययोपन्यसन्नाह । अब कालद्रव्यका अधिकार दिगंबरमतकी प्रक्रियासे उपन्यसित करते हुये कहते हैं । मन्दगत्या प्यणुर्यावत्प्रदेशे नभसः स्थितौ । याति तत्समयस्यैव स्थानं कालाणुरुच्यते ॥१४॥ भावार्थ:- आकाशके प्रदेशके स्थान में मंदगतिसे परमाणु जितने समय में गमन करता है; उस समय अर्थात् उस समयप्रमाण जो काल है; उसके स्थान में कालाणु यह व्यवहार होता है ।। १४ ।। व्याख्या | मन्दगत्या मन्दगमनेनाणुः परमाणुर्नमम आकाशस्य प्रदेशे स्थिती स्थाने यावदिति यावता कालेन गच्छति तत्समयस्य तत्कालपरिमितस्य कालस्य स्थानं कालाणुरिति व्यवहारे जायत इति । एकस्य नभसः स्थाने मन्दगतिरणुर्यावता कालेन सञ्चरति तत्पर्यायेण समय उच्यते तदनुरूपश्च यः स कालः पर्यायसमयस्य भाजनं कालाणुरिति । स चैकस्मिन्नाकाशप्रदेश एकैक एवं कुर्वतां समस्त लोकाकाशप्रदेशप्रमाणाः कालावो जायन्त इति । इत्थं कश्चिदपरो वदन् जैनामासो दिगम्बर एवास्ति । उक्तं च द्रव्यसंग्रहे “रयणाणं रासी इव ते कालाणु असंखदब्बाणि" इति ॥ १४ ॥ व्याख्यार्थः–आकाशके प्रदेश स्थानमें जितने कालमें मन्दगति से परमाणु जाता है; उतने समयपरिमाण जो काल है; उस कालके स्थान में "कालाणु" यह व्यवहार होता है । और एक आकाशके स्थानमें मन्दगमनका धारक परमाणु जितने कालमें जाता है; कालको पर्यायरूप से समय कहते हैं । और समयरूप जो काल है; वह पर्यायरूप समयका भाजन कालागु है । और वह कालाणु एक आकाशके प्रदेशमें एक है; एक आकाश प्रदेशमें एक है; इस प्रकार जब करते हैं; तब लोकाकाश के समस्त प्रदेशों के समान कालाणु होते हैं । अर्थात् लोकाकाशके असंख्यात प्रदेश हैं; और एक एक प्रदेशमें एक एक काला है; इस प्रकार असंख्यात ही कालाणु होते हैं । सो ही द्रव्य संग्रह में कहा हैं; कि - "रत्नोंकी राशिकी तरह वह कालाणु असंख्यात द्रव्य हैं ||१४|| इति दिगम्बरमतमनुसृत्य योगशास्त्राभ्यासनापरोऽपि कचिदेतद्वचनमुदाजहार । इस दिगम्बरमतका अनुसरण करके योगशास्त्र के अभ्यास से अन्य किसीने भी यह अग्रिम सूत्रोक्तवाक्यका उदाहरण दिया है । २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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