Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 126
________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १०५ उपचार जैसे मतिज्ञान शरीर है, तथा पर्याय में गुणका भावार्थः—गुणमें पर्यायका उपचार जैसे शरीर मतिज्ञान है ||९|| व्याख्या । गुणे पर्यायोपचारः पर्यायचार इत्युपचारो वाच्यो भीमो भीमसेन इति वत् । यथा मतिज्ञानं तदेव शरीरं शरीरजन्यं वर्त्तते ततः कारणादत्र मतिज्ञानरूपात्मकगुणविषये शरीररूपपुद्गल पर्यायस्योपचारः कृतः |८| अथ नवमभेदोत्कीर्त्तनमाह । पर्याये गुणोपचारः । यथा हि पूर्व प्रयोगजमन्यथा क्रियते । यतः शरीरं तदेव मतिज्ञानरूपो गुणोऽस्ति । अत्र हि शरीररूपपर्यायविषये मतिज्ञानरूपाख्यस्य गुणस्योपचारः क्रियते । शरीरमिति पर्यायस्तस्मिन्विषये मतिज्ञानाख्यो गुणस्तस्य चोयचारः कृतः । अत्र चाष्टमनवम विकल्पयोः समविषमकरणेनोपचारो विहितस्तत्रापि सहभाविनो गुणाः क्रममाविनः पर्यायाः । सहमावित्वं च द्रव्येण क्रममावित्वमपि द्रव्येणैव ज्ञेयमतो द्रव्यस्यैव गुणाः, पर्याया अपि द्रव्यस्यैव | गुणपर्याययोः पर्यायगुणयोश्च परस्परमुपचारव्यवहारः कृतः । यत्रोपचारस्तत्र निदर्शनमात्रमेव विसहृदाधर्मित्वेन धर्मारोपवत् । किञ्च मतिज्ञानमात्मनः कश्चिदुद्धटितो गुणः । शरीरे च पुद्गलद्रव्यस्य समवायिकारणम् । यथा मृत्पिण्डे घटस्य समवायिकारणमितिवत् । एवं सत्युपचारो जायते परेण परस्योपचारात् स्वेन स्वेनोपचारासम्भवः । यथा मृत्पिण्डस्य घटेन, तन्तूनां पटेनेत्येवमसद्ध तव्यवहारो नवधोपदिष्टः । उपचारबलेन नवधोपचाराः कृताः ॥६॥ व्याख्यार्थः—यहां गुणमें पर्यायका चार “गुणे पर्य्यायचारः " इस पदसे पर्यायके उपचारसे तात्पर्य है; जैसे भीम और भीमसेन दोनोंसे एक ही अर्थ होता है; अर्थात् जैसे भीमके कथनमें भीमसेनका बोध होता है; ऐसे ही यहां भी चार इस कथन से उपचार अर्थसे तात्पर्य है; गुणमें पर्यायके उपचारका उदाहरण जैसे जो मतिज्ञान है; वही शरीर है; अर्थात् शरीरजन्य है, इसलिये यहां मतिज्ञानरूप गुणके विषय में शरीररूप पुद्गल पर्यायका उपचार किया गया है |८| अब नवम भेदका कथन करते हैं; पर्याय में गुणका उपचार जैसे पूर्व प्रयोग जो मतिज्ञान है; वही शरीर है; इसको विपरीत कर देनेसे जो शरीर है, वही मतिज्ञानरूप गुण है । यहां शरीररूप पर्यायके विषय में मतिज्ञानरूप गुणका उपचार है । क्योंकि शरीर तो पर्याय है, उस शरीरके विषय में मतिज्ञाननामक गुणका उपचार किया गया है । इन अष्टम, नवम, असद्ध तव्यवहारउपनयके भेदों में सम विषम करनेसे उपचार कियागया है। इनमें भी सहभावी जो हैं, वह गुण हैं, ओर जो क्रमभावी हैं; वह पर्याय हैं | और सहभावित्व अर्थात् साथ होना भी द्रव्यसे ही है, तथा क्रमभावित्व अर्थात् क्रमसे होना यह भी द्रव्यसे ही है, इस कारण द्रव्यके ही गुण हैं, और द्रव्यके ही पर्याय हैं । गुण तथा पर्यायका और पर्याय तथा गुणका परस्पर अचार व्यवहार किया गया है : जिसमें जिसका उपचार होता है, उसमें उसका विसदृशधर्म के धर्मके आरोपके सदृश दृष्टान्तमात्र दर्शाया जाता है । और मतिज्ञान जो है; वह आत्माका कोई उत्पन्न हुआ गुण है, तथा शरीर १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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