Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 148
________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १२७ सूत्र यह है; जैसे "मूलनय सात ही हैं" इस प्रकार सूत्रमें स्पष्टरूपसे कहा गया है; सो उस सूत्र जैसे वाक्यका उल्लंघन करके सप्तसे अधिक अर्थात् नय नव हैं; ऐसा वाक्य कैसे अथवा किस आधारसे कहते हो। इसलिये अपने सूत्रको रक्षाकेलिये यथोक्त (सप्तनय )का ही कथन करना योग्य है; ऐसा विचार करके जिस किसीकी वाक्य रचनाका अनादर कर बुद्धिमान् पुरुषोंको अपने शुद्ध सम्यक्त्वकी सिद्धिके अर्थ अथवा सम्यक्त्वकी वृद्धि के लिये श्रीवीतरागभाषित वचनोंकी रचनासे पवित्र ऐसा जो सूत्र है; उसीमें बुद्धिको लगाना चाहिये ॥ १९ ॥ अथ साक्षिणं दर्शयति । अब साक्षीको दिखलाते हैं। दश भेदादिकाश्चात्र सन्ति युक्तोपलक्षणाः । न चेदन्तर्भवेत्कुत्र प्रदेशार्थनयो वद ॥ २० ॥ भावार्थः-और द्रव्यार्थिकआदिके जो दश भेद वगैरह देवसेनजीने कहे हैं; वह भी उपलक्षणमात्र हैं । यदि उपलक्षणमात्र न मानें तो कहो प्रदेशार्थनयका किसमें अन्तर्भाव होवे ॥२०॥ ___व्याख्या । अत्र देवसेनरचितनयचक्नग्रन्थे द्रव्याथिकादिदश १० भेदा उपदिष्टास्ते चोपलक्षणत्वेन ज्ञातव्याः। यद्येव न क्रियते तहि प्रदेशार्थनयः कस्मिन् स्थाने चरितार्थो भवेदित्थं विचारणीयम् । दशभेदादिका अत्र देवसेनीये ग्रन्थे युक्तोपलक्षणा, उपलक्षणमात्रपराः सन्ति चेद्यद्य वं ते कुत्र न तर्हि प्रदेशार्थनयोऽपि कुत्रान्तर्भवेदिति वद । उक्तं च सूरे "दृष्टियाए पदेसट्टियाए दब्वट्ठय पदेसट्ठय" इत्यादि । तथा कर्मोपाधिसापेक्षजीवभावग्राहकद्रव्याथिको यथोपदिष्टस्तथा जीवसंयोगसापेक्षपुगळभावग्राहकनयोऽपि भिन्नतया कथयितु योग्य एव । एवं सत्यनेके भेदा भवन्ति तथा प्रस्थकादिदृष्टान्तेन नैगमादीनामशुद्ध १ अशुद्धतर २ अशुद्धतम ३ शुद्ध ४ शुद्धतर ५ शुद्धतमादिभेदा भवन्ति ते भेदा: कुत्र संगृह्यन्ते । तेषां सङ्ग्रहार्थमुपचारो विहितस्तत उपचारेण ते उपनया भवन्तीति यदि कथ्यते तदापसिद्धान्तो भवेत् । अनुयोगद्वारे ते नयभेदाः प्रदर्शिताः सन्ति तत एतदेव दृढीक्रियते उपनयाः कथिता ये सन्ति ते व्यवहारनगमादिभ्यः पृथग् न सन्ति उक्त च तत्त्वार्थसूत्र व्यवहारलक्षणं "उपचारबहुलो विस्तृतार्थो लौकिकप्रायो ध्यवहारः" इति ॥ २० ॥ व्याख्यार्थः-इस देवसेनजीरचित नयचक्रनामक ग्रन्थमें जो द्रव्यार्थिकआदि दश भेद द्रव्यार्थिक नयके कहे हैं; उनको उपलक्षणपनेसे जानने चाहिये अर्थात् यह भेद १ निजका तथा निजके समीपस्य तथा अपने संबन्धीका भी बोध करनेवाला शब्द, जैसे “काकेभ्यो दधि रक्षताम" यहाँपर काकपद दधिके उपचातक ( नाश करनेवाले ) श्वान मार्जारआदिका उपलक्षण है न कि यह कि काकोंसे दधिकी रक्षाकरो और बिल्ली कुत्ते आवें तो खाने दो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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