Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 150
________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १२९ भावार्थ:- निश्चयनयसे व्यवहारनय में उपचारकी विशेषता क्या है ? इसका उत्तर यह है; कि - जब एककी मुख्यता होती है; तब अन्य ( दूसरे ) की उपचारता होती है ||२२|| व्याख्या | निश्चयात् निश्चयनयात् व्यवहारेण सहोपचारविशेषता कास्ति । व्यवहारविषय उपचारोऽस्ति निश्चय उपचारो नास्त्येतावद्विशेषता । यदैकनयस्य मुख्यवृत्तिगृह्यते तदा परनयस्योपचारवृत्तिरायाति । रत्नाकरवाक्ये स्याद्वादरत्नाकरे च प्रसिद्धमस्ति "स्वस्वार्थ सत्यत्वस्यामिमानोऽखिल नयानामभ्योन्यं वर्त्तते फलात्सत्यत्वं तु सम्यग्दर्शनयोग एवास्ति" । एवं च प्रकृतमर्थं व्याख्यायते । निश्चयनयाद् व्यवहार-नयेन सहोपचारविशेषता कास्ति योपचारविशेषता वर्त्तते तां दर्शयति । यदैकस्य कस्यचिन्नयस्य मुख्यता मुख्यमावो वर्त्तते तदान्यस्यान्यनयस्य उपचारता गौणत्वं भवतीति ज्ञेयम् । यथा हि निश्वयेनात्मेति शब्द एतस्य निश्वयार्थस्तु "असंख्यात प्रदेशी निरञ्जनोऽनन्तज्ञानादिगुणोपेतो नित्यो विभुः कर्मदोषैरसङ्गतः सिद्ध इव देह उपलभ्यते" तदास्य व्यवहारेणोपाधिकस्य जडशरीरादेः सङ्गतस्योदयिकादिभावोपगतनरनैरयकादिभा वस्पर्शतोऽपि गौणत्वं मासते । - अथ च " अतति सातत्येन गच्छति तांस्तान्पर्यायानित्यात्मा" संसारस्यो देहादिसङ्गतो जन्ममरण जरायोवनादिक्लेशमनुभवमानः प्रत्यक्षप्रमाणेन व्यवहारादेशाद्द वो मनुष्यो नारकस्तिर्यङ् च कथ्यते तत्र सिद्धत्वस्य गौणत्वम् ॥ २२ ॥ व्याख्यार्थः – निश्चयनयसे व्यवहारनय के साथ उपचारकी विशेषता क्या है ? इस जिज्ञासा ( जाननेकी इच्छा ) में कहते हैं; कि - यवहारनय के विशेष उपचार है; और निश्चयनयमें उपचार नहीं है; इतनी ही विशेषता है; अर्थात् जब एक नयकी मुख्य अर्थ में शक्ति रहती है तब अन्यनयकी उपचारवृत्ति स्वयं आती है। और यह वार्त्ता रत्नाकर वाक्यमें तथा स्याद्वादरत्नाकरमें प्रसिद्ध है । जैसे "अपने २ अर्थकी सत्यताका अभिमान सब नयोंके परस्पर रहता है; और उन नयोंके फलसे सत्यता तो सम्यग्दर्शन के संयोगके होनेपर ही होती है, " जब ऐसा सिद्धान्त है; तब इस प्रकृत अर्थका इस प्रकार व्याख्यान होता है; कि - "निश्चयनयसे व्यवहारनयके साथ उपचार विशेषता क्या है ? जो उपचारविशेषपना है, उसको दिखाते हैं । जब किसी एक नय की मुख्यता रहती हैं, तब अन्य ( दूसरे ) नयकी उपचारता रहती है; तात्पर्य यह कि - एक नय प्रधानभाव से जब रहेगा तब अन्य गौणत्व (अप्रधानपने) रूपसे आप ही रहेगा, यह गौणत्ववृत्ति होना ही उपचारता है; ऐसा समझना चाहिये । उदाहरण केलिये जैसे निश्चयनयसे " आत्मा यह शब्द है; तब इस आत्माका निश्चयनयसे अर्थ असंख्यातप्रदेशोंका धारक, निरंजन, अनंत ज्ञानआदि गुणोंसे सहित, नित्य, विभु ( व्यापक ) और कर्मों से उत्पन्न जो दोष हैं; उनसे रहित सिद्धके सदृश आत्मा ही देहमें जाना जाता है । उन निश्वयार्थदशा में यद्यपि व्यवहारसे औपाधिक जो जड़ पदार्थ शरीर आदि हैं; उनके " १७ Jain Education International → For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226