Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 195
________________ १७४ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् कहा है । और इस कालद्रव्यका विस्तारसे वर्णन भी उन्हीं आगमोंसे अवधारण करना चाहिये ॥१०॥ अथ कण्ठतोऽपि सूत्र जीवाजीवाभ्यामतीतकालः कथितोऽतस्तमेव तथैव सूत्रयन्नाह । अब कंठसे भी सूत्रमें जीव और अजीवसे अतीत काल कहागया है; इसलिये उस कालको उसी प्रकार सूत्रित करते हुये कहते हैं । जीवाजीवमयः कालः समये न पृथक्कृतः । इत्येके संगिरन्तेऽत्र धारयन्तः शुभां मतिम् ॥११॥ भावार्थ:-कितने ही शुभ बुद्धिको धारण करते हुये आचार्य इस विषयमें यह कहते हैं; कि-सिद्धान्तमें कालको जीव, अजीवरूप ही माना गया है; जुदा नहीं किया गया ॥ ११ ॥ व्याख्या । “समये सिद्धान्ते जीवाजीवमयो जीवाजीवरूपः कालः कथितः पृथग मिन्नस्ताभ्यां न कृतस्ततो भिन्नः कथं कथ्यते" इति पूर्वोक्तमेक आवार्याः संगिरन्ते भाषन्ते अत्र । किं कुर्वन्तः शुमा विशुद्धां मति बुद्धि धारयन्तः शुद्धबुद्धिमतां सुधीराणां यथोक्तश्रीजिनप्रणीत तत्ववेत्त णां प्राणिनां सम्यक्त्वाबाप्तिः सुलमः भवतीति ध्येयम । तथा च गौतमेन भद्रकपरिणामशालिना भगवान पृष्टः । तदाहेति भगवन किमयं कालो जीवस्तथा जीवश्चेति प्रश्ने भगवानाह । गौतम जीवोऽपि काल:, अजीवोऽपि काल: तदुभयं काल एव जीवाजीवयोः कालेनोपजीव्योपजीवकभावसंबन्धः संतिष्ठत इति ॥११॥ व्याख्यार्थः-समय अर्थात् जिनसिद्धान्तमें जीव तथा अजीवमय अर्थात् जीव और अजीवरूप काल कहागया है; तात्पर्य यह कि-कालको जीव और अजीव इन दोनोंसे भिन्न नहीं किया इस कारण इस कालद्रव्यको तुम जीव अजीवसे भिन्न कैसे करते हो अर्थात् जीव अजीवसे जुदा कालद्रव्य क्यों मानते हो। इस प्रकार यह पूर्वोक्त सिद्धान्त विशुद्ध बुद्धिके धारक एक आचार्य कहते हैं । इस कथनसे शुद्ध बुद्धिके धारक उत्तम धारणावाले और श्रीजिनेन्द्र देवने जैसे कहे वैसे ही तत्वोंके ज्ञाता भव्यजीवोंके सम्यक्त्वकी प्रापि मुलभ होती है; यह विचार करना चाहिये । सो हो दिखाते हैं कि-भद्र परिणामोंके धारक गौतमस्वामीने एक समय श्रीमहावीरस्वामोसे पूछा कि-हेभगवन् ! यह काल जीव है; वा अजीव है ? इस प्रकार प्रश्न करनेसर श्रीभगवान बोले कि-हे गौतम! जीव भी काल है; और अजीव भी काल है है; इसलिये जीव तथा अजीव दोनों काल ही हैं। क्योंकि-जीव तथा अजीवका काल के साथ उपजीव्य अजीवकभाव सम्बन्ध पूर्णरूपसे स्थित है । ऐसा भगवान्का वचन है; इसलिये यह काल जीव अजीवरूप ही है, इनसे भिन्न नहीं ॥ ११ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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