Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 151
________________ १३० श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् सहित तथा औदयिक आदि भावोंसे प्राप्त जो नर नारकी, और तिर्यन आदिपना है; उसको स्पर्शता हुआ भी जो आत्मा है; उसका गौणत्व भासता है । और जब "अति इति आत्मा" अर्थात् जो निरन्तर उन उन पर्यायोंके प्रति गमन करता है; अथवा निरन्तर न उन पर्यायोंको प्राप्त होता है; वह आत्मा है; ऐसा व्यवहारसे अर्थ करते हैं; तब यह आत्मा संसारी है, देहआदिकसे सहित है, जन्म, मरण, वृद्धावस्था, और यौवनआदिक दशाओंमें जो दुःख होता है; उसको प्रत्यक्ष प्रमाणसे अनुभव करताहुआ देव है, मनुष्य है, नारकी है; और तिर्यन है; इत्यादिरूपसे कहा जाता है । उस व्यवहारदशामें इसका निश्वयोक्त अनन्त गुणादिसहित जो सिद्धपना है; उसकी गौणता भासती है ||२२|| अथ पुनस्तदेव प्रतिपादयति । अब फिर उसी विषयका प्रतिपादन करते हैं । तेनेदं भाष्यसंदिष्टं गृहीतव्यं विनिश्चयम् । तत्त्वार्थं निश्चयो वक्ति व्यवहारो जनोदितम् ॥२३॥ भावार्थ:- इस कारण भाष्यमें कहाहुआ जो यह विनिश्चय है; - "निश्चियनय तत्त्वार्थको कहता है; और व्यवहारनय केवल मनुष्योंसे कहेहुएको हो कहता है" इसको स्वीकार करना चाहिये ॥ २३ ॥ व्याख्या । तेन कारणेनेदं विनिश्चयं निश्चयव्यवहारयोलंक्षणं माष्यसंदिष्टं विशेषावश्यक निरूपितं गृहीतव्यमवचारणीयम् । अथ निश्चयव्यवहारयोर्लक्षणमाह । निश्चयो निश्चयतयः तत्त्वार्थं युक्तिसिद्धमर्थं वक्ति कथयति । पुनर्व्यवहारो व्यवहारनयो जनोदितं लोकाभिग्राहित्वं वक्ति यतो लोकाभिमतमेव व्यवहारस्तस्य ग्राहकं प्रमाणं न भवति । प्रमाणं तु तत्वार्थ ग्राहक मेवास्ति तथापि प्रमाणस्य सकलतत्त्वार्थग्राही निश्चयनयः, एकदेशतत्त्वार्थग्राही व्यवहारश्चायं विवेकः । निश्चयनयस्य विषयत्वमथ च व्यवहारनयस्य विषयत्वमनुभवसिद्ध मिन्नमेवास्ते । असता न निष्ठेति । यथा सविकल्पकज्ञानं नष्टप्रकारतादिकमन्यवादिनो भिन्नमेवामनतीति हृदये विमर्शनीयम् ॥२३॥ Jain Education International व्याख्यार्थः: - इस कारण से भाष्य अर्थात् विशेषावश्यकमें कहा हुआ जो यह विनिरचय अर्थात् निश्चय और व्यवहारका लक्षण है; उसको निश्चित करना चाहिये । अब जो निश्चय और व्यवहारका लक्षण भाष्य में कहाहुआ है; उसका कथन करते हैं; कि-निश्चय नय जो है; वह तो तत्त्वार्थ अर्थात् युक्तिसे सिद्ध अर्थको कहता है; और व्यवहारनय जो है; वह जनोदित अर्थात् लोकके इष्ट जो ग्रहण है; उसको कहता है, क्योंकि लोकके ही जो अभिमत होता है; वह व्यवहार है । इसलिये उस व्यवहारका जो ग्राहक ( ग्रहण करनेवाला है; वह प्रमाण नहीं होता; किन्तु जो तत्त्वार्थका ग्राहक होता है; वही प्रमाण होता है; तथापि प्रमाणके संपूर्ण तस्वार्थको ग्रहण करानेवाला निश्चयन है; और प्रमा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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