Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 183
________________ १६२ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् (व्यय ) होता है। इत्यादि गाथासे संयोग विभाग इन दोनोंसे भेदकी कल्पना समझनी चाहिये ॥२७॥ ध्रौव्यं स्थूलर्जु सूत्रस्य पर्यायः समयादिकः । संग्रहस्य निजद्रव्यजात्या कालत्रयात्मकः ॥ २८ ॥ भावार्थः-स्थूलजुसूत्रनयका ध्रुवभाव समयआदिक ( समय प्रमाण ) पर्याय है । और संग्रहनयका निजद्रव्यजातिसे त्रिकालात्मक ध्रुवत्व है ॥२८॥ व्याख्या । ध्रौव्यं ध्रुवस्वभावोऽपि स्थूलर्जु सूत्रस्य ऋजुसूशं द्विधा स्थूलसूक्ष्मभेदात्तत्र स्थूल सूत्रस्य पर्यायो मनुष्यादिकः समयप्रमाणोऽस्ति । प्रथमः स्थूल ऋजुसूत्रनयस्तदनुसारेण मनुष्यादिपर्यायाणां समयमानं ज्ञेयमिति भावः । पुनर्द्वितीयः संग्रहनयस्य सम्मतो निजद्रव्याजात्या जीवपुद्गलादिकनिजद्रव्यजात्या कालत्रयात्मकस्त्रिकालव्यापको ज्ञेय इति । किं च आत्मद्रव्येण गुणपर्याययोरात्मद्रव्यं समानाधिकरणत्वेन अन्वयानुगम एव ध्रौव्यमिति । पुद्गलद्रव्येण गुणपर्याययोः पुद्गलद्रव्यानुगम एव ध्रौव्यमिति । एवं निजनिजजात्या निर्धारो ज्ञेय इति ॥ २८ ॥ व्याख्यार्थः-स्थूल और सूक्ष्म इन भेदोंसे ऋजुसूत्रनय दो प्रकारका है; उनमें स्थूल ऋजुसूत्रके मतमें समयप्रमाण जो मनुष्यआदिक पर्याय है; सो ध्रुवस्वभाव है; भावार्थ यह है; कि-प्रथम जो स्थूल ऋजुसूत्रनय है; उसके अनुसार मनुष्यआदि पर्यायका जो समय है; उस प्रमाण ( उतना) ध्रौव्य है; जैसे कोई जीव मनुष्यपर्यायमें पचास वर्ष रहा तो स्थूल ऋजुसूत्रके मतमें मनुष्यपर्यायके पचास वर्ष ही ध्रौव्य है । और दूसरा संग्रहनयके संमत निजद्रव्यजातिसे अर्थात् जीवपुद्गलआदि निजद्रव्यकी जातिसे त्रिकालमें व्यापक ध्रौव्य जानना चाहिये । तथा आत्मद्रव्यसे गुण और पर्यायमें आत्मद्रव्यसमानाधिकरणताका जो अन्वयानुगम है; सो ही ध्रौव्य है। पुद्गलद्रव्यसे गुण और पर्यायमें पुद्गलद्रव्यका अनुगम है; वही ध्रौव्य है। इस प्रकार अपनी अपनी जातिसे ध्रौव्यका निर्धार ( निश्चय ) समझना चाहिये अर्थात् आत्मद्रव्यके गुणपर्यायोंमें आत्मद्रव्यकी और पुद्गलद्रव्यके गुण पर्यायोंमें पुद्गलद्रव्यका धौन्य रहेगा और इनकी अनन्तर जातिमें भी यही व्यवस्था समझनी चाहिये जैसे मृत्तिकाके गुणपर्यायों ( घटादिक ) में मृत्तिका द्रव्यका ध्रौव्य रहता है ॥२८॥ अर्थाः समर्थाः समये निरुक्ता इत्थं विधालक्षणवन्त आप्तः । सम्यग्धिया तान्परिभाव्य भव्या अर्हत्क्रमाम्भोजयुगं श्रयन्ताम् ॥ २६ ॥ भावार्थ:-हे भव्य जीवो ! इस पूर्वोक्त रीतिसे यथार्थ तत्त्वको जाननेवाले तीर्थकरोंने शास्त्रमें शक्तिके धारक धर्म अधर्म आदि षट् द्रव्य तीन प्रकार के लक्षणोंसहित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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