Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 181
________________ १६० ] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् नाश होना यह परिणामका स्वरूप परिणामके जाननेवालोंके इष्ट नहीं है ॥१॥ और सत् (विद्यमान) पर्यायसे नाश तथा अविद्यमान पर्यायसे उत्पाद जो है; सो पर्यायार्थिकनयकी विवक्षासे द्रव्योंका परिणाम कहा गया है । २ । यह वचन संमतिप्रज्ञापना वृत्तिमेंका है; उसका अभिप्राय यह है; कि-जो सत् ( विद्यमान ) पर्याय कथंचित् रूपान्तरको प्राप्त होता है; और सर्वथा नष्ट नहीं होता वह द्रव्यार्थिकनयका परिणाम कहा गया है । और पूर्व सत् पर्यायसे तो नष्ट हो और उत्तर जो अविद्यमान पर्याय है; उससे उत्पन्न होता हो वह पर्यायार्थिकनयका परिणाम कहा गया है । इस अभिप्रायको विचारनेवालोंके मतमें एक तो रूपान्तर परिणाम विनाश है; और एक अर्थान्तर गमन विनाश है; ऐसे विनाशके भी दो भेद सिद्ध हुए ॥२५ ।। पुनराह। पुनः दो प्रकारके नाशोंका स्वरूप दिखाते हैं । तत्रान्धतमसस्तेजो, रूपान्तरस्य संक्रमः । अणोरण्वन्तरापातो ह्यर्थान्तरगमश्च सः ॥२६॥ भावार्थः-इन दोनोंमेंसे अतिघनीभूत अंधकारका प्रकाशरूपमें जो संक्रमण है; वह परिणामरूप नाश है । और अणुसे जो अन्य अणुके साथ संयोग होता है; अर्थात् अणुसे जो द्वणुक स्कन्धरूप प्राप्ति है, वह अर्थान्तरगमनरूप नाश है ।। २६ ।। व्याख्या । तत्र नाशेऽन्धतमसोऽधकारस्य तेजोरूपान्तरस्य संक्रम उद्योततावस्थितद्वव्यस्य रूपान्तरपरिणामरूपनाशो ज्ञेयः । च पुनरणोः परमाणोरण्वन्तरापादोणोरण्वन्तरसंक्रमो द्विप्रदेशादिमावमनुमवन् पूर्वपरमाणुत्वं विगतमित्यनेनार्थातरगमः स्कंधपर्याय उत्पन्नस्तेन कृत्वार्थान्तरगतिरूपनाशस्य स्थितिमवति । निष्कर्षस्त्वयम्-यत्राकारस्तत्रापि तदाकारपरमाणुप्रचययोनिरन्धतमः समस्ति तशैव पुनरुद्योतपरमाणुप्रचयसंचारनिरस्तान्धकारपरमाणुत्वतत्स्थानतत्तत्परमाणुसंक्रमिततेजः परमाणुत्वलक्षणः रूपान्तरसंक्रमो जातःयथा अवयवानां परमाणुनामवयविस्कन्धत्वसंक्रमेणार्थान्तरत्वोभावन यार्थान्तरगति लक्षणो नाशः समुत्पन्न इति ॥२६॥ व्याख्यार्थः-उस नाशमें अंधकाररूप द्रव्यका तेजोरूपमें जो संक्रमण ( मिलता ) है, अर्थात् अन्धकारसे प्रकाशरूप द्रव्यमें जो परिवर्तन ( बदलना ) है, उसको रूपांतर परिणामरूप नाश जानना चाहिये और अणु ( परमाणु ) का दूसरे परमाणुके साथ जो संयोग है, अर्थात् द्विप्रदेशादिभावको अनुभव करते हुए पूर्व परमाणुत्वरूपका नाश हो जाता है, इस कारणसे अर्थान्तरगमन हुआ अर्थात् अणुपर्यायसे स्कंधपर्याय उत्पन्न हुआ इससे अर्थान्तरगतिरूप नाशका स्थिरत्व (ठहराव ) होता है । भावार्थ तो यह है, कि-जहां आकार ( काला रंग ) है, वहां भी उस आकारके धारक परमाणवोंके समूहसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .

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