Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 190
________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा व्याख्यार्थः-स्वभावसे ऊर्ध्वगामी सिद्ध जीवका यदि धर्मास्तिकाय द्रव्य के प्रतिबन्ध विना अनन्त अर्थात् अतट ( अपार ) तथा लोक और अलोक दोनोंमें व्याप्त ऐसे आकाशमें परिभ्रमण जो है; सो नहीं रुक सकता है। और यदि गमनमें धर्मास्तिकायद्रव्यका प्रतिबन्धकत्व न हो तो एक समयमें लोकके अग्रभागमें जानेवाले और जैसे लोकमें गमन किया उसी प्रकार अलोक में गमन करनेवाले तथा स्वभावसे ऊर्ध्वगमनकारक ऐसे सिद्धोंके ऊर्ध्वगमनरूप जो गमन है; उसकी निवृत्ति ( रहितता) अबतक भी न हो क्योंकि-अनन्तलोकांशप्रमाण अलोकाकाश है, अर्थात् लोकसे अनन्त गुणा अलोक है । "लोकाकाश गतिमें हेतु है; इसलिये अलोकमें सिद्धोंका गमन नहीं है" ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि-धर्मास्तिकायके विना लोकाकाशकी व्यवस्था ही नहीं हो सकती है । क्योंकि-धर्मास्तिकाय विशिष्ट ( सहित ) जो आकाश है; वह ही लोकाकाश है; और उस लोकाकाशको ही यदि गमनका कारण माने तो घट आदिमें भी दण्डविशिष्ट जो आकाश है; वह हेतु हो जावे । इसलिये लोकाकाशको गतिमें कारण मानना यह पक्ष अकिंचित्कर (अयुक्त) है । और भी अन्यस्वभावयुक्तत्वरूपसे जो कल्पित आकाश है; उसके अन्य स्वभावकी कल्पना करना यह . भी अयुक्त है; अर्थात् गतिहेतुता धर्मद्रव्यका स्वभाव है; उस गतिहेतुतासे युक्त जो आकाश उसकी लोकाकाश यह कल्पना की गई है; तब उस कल्पित लोकाकाशमें धर्मद्रव्यके स्वभावकी कल्पना अयोग्य ही है । इसलिये धर्मास्तिकायको गतिका हेतु अवश्य प्रमाणमें लाना चाहिये अर्थात् मानना चाहिये । और "धर्मद्रव्य पुद्गल और जीवोंको गमन करानेरूप स्वभावका धारक है" इत्यादि कहा हुआ जो सिद्धान्तका प्रमाण है; उसका भी यहां विचार करना चाहिये ॥६॥ अथ धर्मास्तिकाये प्रमाणमाह । अब अधर्मास्तिकायद्रव्य के विषय में प्रमाण कहते हैं । स्थितिहेतुर्यदा धर्मो नोच्यते क्वापि चेवयोः । तदा नित्या स्थितिः स्थाने कुत्रापि न गतिर्भवेत् ॥७॥ भावार्थ:-अब यदि जीव पुद्गलकी कही भी स्थितिका हेतुभूत अधर्म द्रव्य नहीं कहोगे तो पुद्गल और जीवकी नित्य स्थिति ही होगो कहीं भी उनकी गति नहीं हो सकेगी ॥७॥ व्याख्या। यदा द्वयोः पुद्गलजीवयोः क्वापि स्थितिहेतुरवस्थानकारणमधर्मास्तिकायो नोच्यते तदा स्थाने सर्वत्र स्थाने नियता नियामिका स्थितिरेव स्यात्, न कुत्रापि गतिर्मवे. दिति । यदि च सर्वजीवपुद्गळसाधारणस्थितिहेतुत्वमधर्मद्रव्यं न कथ्यते किन्तु धर्मा २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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