Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 169
________________ १४८ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ही क्रियामें कालके एक ही समयमें विवक्षासे उत्पन्न हो रहा है, उत्पन्न हुआ, नष्ट हो रहा है; तथा नष्ट हुआ इत्यादि व्यवहार है; इसी पूर्वोक्त रीतिसे सिद्धान्त मतमें भूतकालादि प्रयोगकी संभावना हो सकती है। और अन्यके मतमें तो इस समय यह घट नष्ट हुआ यह व्यवहार प्रथम क्षणमें सर्वथा नहीं हो सकता क्योंकि-अभी (प्रथम क्षणमें ) नश्यमान क्रिया हो रही है, तब उस नाशानुकूल क्रियाका भूतकाल कैसे बोधित हो सकता है । और नयका भेद माननेसे तो हो सकता है; अर्थात् भविष्य कालकी अपेक्षासे उसीमें भूतत्वके आरोपसे नश धातुके भूतकालके प्रयोगमें कोई अनुपपत्ति नहीं है। यहांपर हमारी संमति ऐसी है, कि-स्वकीय अधिकरणीभूत जो क्षण उस क्षणका व्यापक तथा स्वके अधिकरणमें जो ध्वंसक्षणकी अधिकरणता तादृश अधिकरणत्वरूप ही अनुत्पन्नत्व है। यहांपर स्वशब्दसे नश्यमानानुकूल क्रियाका ग्रहण है; अतः जिस समयमें नश्यमानरूप क्रिया हो रही है; उस क्षणकी तो अनुत्पत्तिव्यापिका है; और उसी क्रियाका अधिकरणीभूत जो ध्वंस है; उसके अधिकरणका भी क्षण है; क्योंकि-उसी क्षणमें ध्वंसानुकूल क्रिया भी हो रही है; अत एव स्वाधिकरणक्षणत्वव्यापक तथा स्वाधिकरणीभूत ध्वंसाधिकरणत्व स्वरूपता अनुत्पन्नत्वमें चली गई। यही विषय इस गाथामें कहा है; जैसे उत्पद्यमान काल में उत्पन्न होता है; उत्पन्न हुआ नष्ट होता है; ऐसे दो भेद कहे हुये त्रिकाल विषयको विशेषित करते हैं ॥१२॥ उत्पत्तिर्न भवेदने तदोत्पन्नं च तद्भवेत् । यथा नाशं विना नष्टं प्रथमं किं न रोचते ॥ १३ ॥ भावार्थ:-प्रथम द्वितीयआदि क्षणमें उत्पत्ति नहीं हुई और उत्पन्न हुआ ऐसा व्यवहार यदि तुम भविष्यकी अपेक्षासे मानते हो तो नाशके विना भी नष्ट हुआ यह व्यवहार तुमको क्यों नहीं रुचता ॥ १३ ॥ व्याख्या। उत्पत्तीति-यदा अग्रे द्वितीयादिक्षणे उत्पत्तिर्न भवेत्तदा तबटादिकं द्वितीयादिक्षणेऽनुत्पन्नत्वं भवेत् । यथा च प्रथमध्वंसेन नाशेन विना अनष्टमविनष्ट यदि कथ्यते। इत्ययं तर्कस्तव किं न रोचते । यस्मात्प्रतिक्षणोत्पादनाशी परिणामद्वारा माननीयौ। अथ च द्रव्यार्थादेशेन द्वितीयादिक्षणे या त्पत्तिव्यवहारः कथ्यते तदा नाशव्यवहारोऽपि तथा भवितु युज्यते। तथा च क्षणान्तर्भावेन द्वितीयादिक्षण उत्पत्तिरपि प्रापयितु युक्ता भवेत्, अकल्पिता अनुत्पन्नता न भवेत् । तथापि प्रतिक्षणमुत्पत्ति विना परमार्थतोऽनुत्पन्नतार्थता युज्यत इत्यर्थः ॥ १३ ॥ ___व्याख्यार्थः--यदि द्वितीयादि क्षणमें उत्पत्ति नहीं होती तो वह घटआदि उस द्वितीयआदि क्षणमें अनुत्पन्न होते हैं; और जैसे नाशके विना अनष्ट हुआ ऐसा यदि कहा जाय तो यह तर्क तुमको क्यों नहीं रुचता। क्योंकि--प्रतिक्षगमें उत्पाद नाश परि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226