Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 165
________________ १४४ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् दधिवतः । अगोरसवतो नोभे तस्माद्वस्तुत्रयात्मकम् ॥१॥ अन्वयव्यतिरेकाभ्यां द्रव्यपर्यायौ सिद्धान्ताविरोधिनी सर्वत्रावतारणीयाविति । लक्षणत्रयं कथनीयम् । केचन भावा अन्वयिनः, केचन भावा व्यतिरेकिण:, एवमन्यदर्शनिनः कथयन्ति, तत्र त्वन्येषामपि भावानां निदर्शनं स्याद्वादव्युपत्त्या समञ्जसं स्यादिति । अन्यच्च वस्तुतः सत्ता विलक्षणरूपैवास्ति "उत्पादव्ययप्रौपयुक्त सत्" इति तत्त्वार्यसूत्रवचनात् । ततः सत्ता प्रत्यक्षं तदेव त्रिसक्षणं साक्षादस्ति । तथारूपेण सन्यवहारसाध्यानुमानादिकप्रमाणान्यप्यनुष्ठीयन्ते ॥९॥ व्याख्यार्थः-दूध ही सेवन करना चाहिये इस प्रकारकी प्रतिज्ञामें जो तत्पर हो उसे पयोव्रत कहते हैं; वह पयोत्रत अर्थात् दूधको खानेवाला पुरुष दही नहीं खाता है; और जो दहीको ही सेवन करनेवाला है; वह दुग्ध नहीं पीता है क्योंकि-उसको दहीका खाना ही प्रतिज्ञारूप धर्म है। अब यहां “परमार्थमें तो दूधका परिणामरूप ही दही है" इस प्रकार यदि दुग्ध दधिका अभेद कहते हो अर्थात् दूध दही एक ही है; ऐसा मानते हो तब तो दूध पीनेवालेके दहीके खानेसे भी व्रतका भंग नहीं होगा। और यदि परिणामी द्रव्य होनेसे दही दूध नहीं हो सकता ऐसा कहो तो इस भेद विवक्षासे दही दूधसे भिन्न द्रव्य है। भावार्थ-अभेदविवक्षासे दूध पीतेहुयेके दहोके व्रतका भंग नहीं होता है; और दही खातेहुये मनुष्यके दुग्धके व्रतका नाश भी नहीं होता है । और गोरसपनेसे दूध और दही इन दोनोंमें अभेद हो है; इसलिये जिसके गोरसका त्याग है; वह दूध और दही दोनोंका सेवन नहीं करता है । यहाँपर दहीपनेसे उत्पत्ति ( उत्पाद ) है; और दुग्धत्वरूपसे नाश है; तथा गोरसत्वरूपसे ध्रुवत्व प्रत्यक्षसे सिद्ध है । इसी प्रकार इस दृष्टान्तसे संपूर्ण संसारके पदार्थों में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यस्वरूप त्रिलक्षण सहितता कहनी चाहिये। ऐसा कहा भी है; “पयोव्रत दधिका भोजन नहीं करता, दधिव्रत दुग्धका भोजन नहीं करता और गोरसका त्यागी दुग्ध दधि इन दोनोंको नहीं खाता इसलिये समस्त वस्तु तीन लक्षणोंका धारक है ॥१॥ और अन्वय तथा व्यतिरेकसे सिद्धान्तके अविरोधी द्रव्य तथा पर्यायकी अवतारण सर्वत्र करनी चाहिये इसलिये जहां द्रव्य पर्याय है; वहां उत्पत्तिआदि तीनों लक्षण कहने चाहिये। कितने ही पदार्थ अन्वयी हैं; और कितने ही पदार्थ व्यतिरेकके धारक हैं; ऐसा अन्य दर्शनवाले कहते हैं। और इस सिद्धान्तमें तो अन्य भी पदार्थोंका दृष्टान्त स्याद्वादकी व्युत्पत्तिसे ठीक हो सकता है। और वस्तुकी सत्ता भी विलक्षण रूप ही है; क्योंकि-उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्यसे सहित जो होय सो सत् है; ऐसा तत्त्वार्थसूत्रका वचन है; इसलिये जो सत्ताका प्रत्यक्ष है; वही साक्षात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप त्रिलक्षण है। ऐसी दशामें सद् इस व्यवहारसे साध्य अनुमानआदिक प्रमाणोंका भी अनुष्ठान किया जाता है ॥९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ..

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