Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 138
________________ द्रव्यानुयोगतकणा [११७ गपरिणामसे ईर्ष्यायुक्त होने के कारण संतप्त है; क्योंकि-जो ईष्यायुक्त होते हैं, आभ्यन्तरमें बिना कारण ही संतापमें परायण होते हैं। और हमारा चित्ततो देवसेनजीसे "अन्यके खेतकी दाख जब गधा चरता है; तब हमारी कोई हानि नहीं होती है; तथापि अयोग्य देखकर चित्त खेदित होता है" इन वचन (न्याय ) के अनुसार दुःखित होता है । क्योंकि-देवसेनजी यथोक्त श्रीजिनभगवान के सिद्धान्तसे सिद्ध जो शुद्धपरिभाषा है; उसको त्यागकर निज कपोलकल्पित संस्कृतभाषासे श्रीवीतरागकथित अर्थके विषयको ही अङ्गीकार करके और नयचक्रनामक नवीन ग्रन्थ( शास्त्र)को रचके अपना प्रभाव (प्रमुत्व ) प्रसिद्ध करते हैं। यह इस श्लोकका अर्थ है ॥९॥ अथ बोटिकताभिमतविपरीतपरिभाषां दर्शयन्नाह । अब बोटिकमतके अभिमत जो विपरीत परिभाषा है; उसको दर्शाते हुये कहते है। तत्त्वार्थेऽपि नयाः सप्त पश्चादेशान्तरेऽपि वा। अन्तर्भूतौ समुदत्य नवेति किमु कल्पते ॥ १० ॥ भावार्थः-तत्त्वार्थसूत्रमें भी सप्त ( सात ) ही नय कहे हैं; और मतान्तरमें भी ऋजुसूत्र और एवंभूतका शब्दनयमें अन्तर्भाव मानकर पांच ही नय माने हैं; और देवसेनजी इन सातमें अन्तर्भूत जो द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक हैं; उनको उनमेंसे अलगकर नव ९ नय कैसे कल्पते हैं ॥१०॥ व्याख्या। तत्त्वार्थसूत्र नयाः सप्त उक्ताः पुनरादेशान्तरे मतान्तरे तोव नयाः पञ्च प्रतिपादिताः । तथा च तस्सूत्रम् “सप्त मूलनयाः पंचेत्यादेशान्तर" मिति शब्द: समभिरूढः, एवंभूतेति नयत्रिकं शब्दनय इति नाम्ना संगृहीतानां तयाणामेवकं नाम शब्दनय इति ज्ञायते। ततः प्रथमे चत्वारोऽतस्तैः सह पञ्चनया इति । अर्थकैकस्य भेदानां शतमस्ति । तत्र च सप्तशतं तथा पञ्चशतमेवं मतद्वयेऽपि भेदकल्पनम् । तथोक्तमावश्यके "इक्किकोय सहविहो सत्तणयसया हवंति एमेवे। अण्णोविहु आएसो पंचेमे सयाण याणंतु ॥१॥" एतादृशीं शास्त्रारिभाषां त्यक्त्वा द्रव्याथिकपर्यायाथिकनामानावेष्वन्तर्भावितावेवोद्ध त्य दूरे कृत्वा नव नया: कथिता इति किमु कल्पते । देवसेनेन क: प्रपञ्चः क्रियते ॥१०॥ व्याख्यार्थः-तत्त्वार्थसूत्रमें भी सात ही नय कहे हैं; और वहां ही मतान्तरमें पांच नय प्रतिपादन किये हैं । और पंचनयप्रतिपादक उनका सूत्र भी यह है "सप्त मूलनयाः पञ्चेत्यादेशान्तरम" अर्थात् मूलनय सात हैं; और मतान्तरमें पांच नय हैं ॥ शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूत यह जो तीन नय कहे हैं; इन तीनोंका संग्रह, करनेसे शब्दनयरूप एक ही नाम होता है । इस कारण नैगम; संग्रह, व्यवहार, और ऋजुसूत्र यह पहिले चार तथा इन तीनों (शब्द, समभिरूढ़, एवं भूत ) का एक शब्दनय ऐसे मिलकर पांच नय होते हैं । और एक एक नयके सो १०० भेद हैं; उनमें जिस मतमें सात नय हैं; वहांपर सातसो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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