Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 144
________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १२३ किञ्च त्रयाणां नयानामेकां संज्ञा सगृह्य नयपञ्चकं कथितमस्ति परन्तु विषयो मिन्नो वर्तते अत्र तु विषयो मिन्नो न वर्त्तते । पुनर्ये द्रव्याथिकनयस्य दश १० भेदा दर्शितास्ते सर्वेऽपि शुद्धाशुद्धसंग्रहादिष्वन्तर्भवन्ति, ये च षड्भेदाः पर्यायाथिकनयस्य दर्शितास्ते सर्वेऽप्युपचरितानुपचरितव्यवहारशुद्धाशुद्धर्जुसूत्रादिष्वन्तर्भवन्ति । गोबलीवर्दन्यायेन विषयभेदे मिन्ननयत्वं कथ्यते तर्हि स्यादस्त्येव, स्यान्नास्त्येव, इत्यादिसप्तमङ्गीमध्ये कोटिप्रकारैरपिता-नर्पितसत्त्वासत्त्वग्राहकनयभेदेन भिन्नभिन्ननयवादेन च सप्तमूलनयप्रक्रिया बम्भज्यते । एतत्सुधीभिर्विमृश्यम् ॥१६॥ ___व्याख्यार्थः-पूर्वोक्त रीतिसे सात अथवा मत भेदसे पाँच नयोंमें अन्तर्भाव किये गये ऐसे द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक नयोंका भिन्नरूपसे उपदेश ( निरूपण ) कैसे किया जावे ? अर्थात् सप्त या पंच नयसे भिन्न इनका कथन अयुक्त है; क्योंकि उन्हीं नैगम, संग्रहआदिमें इनका अन्तर्भाव है । कदाचित् ऐसा कहो कि–अन्यमतमें पाँच ही नय हैं; उन पांचमें समभिरूढ और एवंभूत इन दोनोंको मिला देनेसे "सात नय" ऐसा व्यवहार होता है; जिससे समभिरूढ और एवंभूतका पृथक् उपदेश किया गया है। ऐसे ही हमारे भी द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक इन दोनों नयोंका भिन्नरूपतासे उपदेश होगा । सो ऐसा नहीं कहना चाहिये क्योंकि-जैसे शब्द समभिरूढ और एवंभूत नयोंके विषयभेद है; ऐसे ही आप भी द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिकके 'सातों नयोंसे विषयका भेद दिखलाओ ? और शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूत इन तीनोंकी एक संज्ञाका संग्रह करके पंच नयका कथन किया है; परन्तु विषय भिन्न २ है; और द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिकका विषय सप्त नयसे भिन्न नहीं है; अर्थात् अभिन्न ही है । और शब्दआदिक नय तो भिन्नविषयक हैं; और जो द्रव्यार्थिकनयके दश १० भेद कहे गये हैं; वह सब भी शुद्धसंग्रह अशुद्धसंग्रहआदिमें अन्तर्गत हो जाते हैं; तथा जो पर्यायार्थिकनयके षट् ६ भेद दर्शाये गये हैं; वह भी सब उपचरितव्यवहार और अनुपचरितव्यवहार तथा शुद्ध और अशुद्ध ऋजुसूत्रनयमें अन्तर्भूत हो जाते हैं; और यदि “गोबलीवर्दन्याय (जो गो है, वही बलीवर्द (बैल) है; इस न्याय) से भिन्न विषय मानकर भिन्न नय कहते हो तो "स्यादत्येव" कथंचित् है; ही "स्यान्नास्त्येव" कथंचित् नहीं ही है; इत्यादि सप्तभंगीके मध्यमें कोटि (करोड़ों) प्रकारों से अर्पित, अनर्पित, सत्त्व तथा असत्त्वको ग्रहण करनेवाले नयोंके भेदोंसे और भिन्न २ नयके वाद (कथन) से जो सप्त मूलनय माने गये हैं; उनकी प्रक्रियाका सर्वथा भंग हो जायगा अर्थात् मूलनय सात हैं; यह सिद्धान्त न रहेगा यह विषय बुद्धिमानोंको विचारना चाहिये । तात्पर्य यह कि-तार्थ विषयको भी यदि भिन्न मानकर नयके भेदकी कल्पना करते हो तो मूल नय सात ७ ही हैं; यह प्रक्रिया सर्वथा टूट जायगी ।। १६ ॥ अब यदि विषयभेदेन नयभेदमङ्गीकरिष्यथ तदा सामान्यनगमसंग्रहमध्ये, विशेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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