Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 118
________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [९७ क्रियावाचकताके अनुसार ही प्रवृत्ति है; ऐसा उदाहरण भी देता है; जैसे इन्द्र संज्ञा तभी हो सकती है; जब वह इन्दन (एश्वर्यको) अनुभव करता हो ऐसे ही शकन ( सामर्थ्य संपादनरूप) क्रियामें जब परिणत है; तभी शक ओर इसी रोतिसे पुर (शत्रुके ) दारणमें जब प्रवृत्त है; तभी पुरन्दर कहा जाता है ।। १६ ॥ अथ व्याख्यासमाप्ति यानां कृता तथैवाह । अब जो नौ नयोंकी व्याख्याकी समाप्ति की है; उसोको कहते हैं। नया नवैते कथितास्तथोपनयास्त्रयः सारतमाः श्रु तस्य । विज्ञाय तानेव बुधाः श्रयन्तां जिनक्रमाम्भोजयुगाश्रयं सत् १७ भावार्थ:-यह शास्त्रके सारभूत नव ९ नय तथा वक्ष्यमाण तीन ३ उपनय कहे गये हैं; बुद्धिमान उन्हीको पूर्णरूपसे जानकर सद्रूप (सर्वरूपसे समर्थ) श्रीजिनदेवके चरण कमलयुगलका आश्रय ग्रहण करें ॥ १७॥ व्याख्या। नवानां नवसङ्ख्याकानां नयानां द्रव्याथिक १ पर्यायाथिक २ नैगम ३ संग्रह ४ व्यवहार ५ ऋजुसूत्र ६ शब्द ७ समभिरूढ ८ एवंभूत ६ मुखाना भेदाः प्रकाराः मिद्धिगुन्मिता: २८ प्रमिता: सर्वे स्युभवन्ति । तत्र द्रव्याधिको दशभेदः, पयायार्षिक: बभेदः, नैगमस्त्रिभेदः, संग्रहो द्विभेदः, व्यवहारो द्विभेदः, ऋजुसूत्रो द्विभेदः, शब्द एकभेदः, सममिरूढ एकभेद एवमेतेषां भेदा अष्टाविंशतिः। अथान्त्यनमस्कार प्ररुतप्ररूपणं नामोत्कीर्तनमप्याह । एते पूर्वव्यावर्ण्यमाना नया नव संख्यया, तथा तेन प्रकारेणवोपनयानयोऽग्रे वक्ष्यमाणाश्व श्रुतस्य श्रीवीतरागदेवप्रणीतागमस्य सारतमा अतिशयेन प्रधानाः सारतमा वर्तन्ते । तदुक्तमावश्यके नियुक्तो। एएहिं दिठिवाए परूवणा सुत्त अत्थ कहणाय । इह पुण अपुणब्भवगमो अहिगारो तीहि उस्सुन्न । १। इति तानेव नयान् विज्ञाय ज्ञात्वा बुधाः सुधियः सत्सर्वतः समर्थं जिनक्रमाम्भोजयुगाश्रयं श्रयन्तामित्यर्थः ।। १७ ।। इति श्रीकृतिमोजसागरनिर्मितायां द्रव्यानुयोगतर्कणायां षष्ठोऽध्यायः । ६ । व्याख्यार्थः-द्रव्यार्थिक १ पर्यायार्थिक २ नैगम ३ सङ्ग्रह ४ व्यवहार ५ ऋजुसूत्र ६ शब्द ७ समभिरूढ ८ तथा एवंभूत इन मुख्य नौ नयोंके दृक् (दृष्टि) तथा सिद्धि परिमित अर्थात् अट्ठाईस २८ सब अवान्तर भेद हैं; उनमें द्रव्यार्थिकके दश १० भेद, पर्यायाथिकके षट (छ) ६ भेद, नैगमके तीन ३ भेद, संग्रह के दो २ भेद, व्यवहारके दो २ भेद, ऋजुसूत्रके दो २ भेद, शब्दका एक १ भेद, समभिरूढका एक १ भेद और . एवंभूतनयका भी एक १ भेद है; इस प्रकार यह सब मिलकर अट्ठाईस २८ भेद हैं। अब अन्तमें श्रीजिनदेवके चरणों का आश्रयरूप नमस्कार प्रकृतप्ररूग और श्लषसे अपने नामका भी कथन करते हैं। यह पूर्व प्रसंगमें व्याख्यात संख्यासे नौ ९ नय तथा जिनका कथन आगे करेंगे ऐसे तीन ३ उपनय यह सब श्रुतके अर्थात् श्रीवीतराग जिनदेवप्रणीत शास्त्रके अत्यन्त प्रधान विषय हैं; अर्थात् अति उपयोगी हैं; सो ही आवश्यक १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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