Book Title: Doha Ppahudam
Author(s): H C Bhayani, Ramnik Shah, Pritam Singhvi
Publisher: Parshva International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 17
________________ , मूढा सयलु वि कारिमउ मा फुडु तुहुं तुस कंडि । सिवपए णिम्मले करहि रइ, घरु परियणु लहु छंडि ||१३|| मूढ सकलं अपि कृत्रिमं मा स्फुटं त्वं तुषं कन्डय । शिव-पदे निर्मले कुरु रतिं गृहं परिजनं लघु त्यक्त्वा ॥ तुट्टइ सासु णिसासुः । मोहु विलिज्जइ मणु मरइ केवल- णाणु वि परिणवइ, अंबरे जाहं णिवासु || १४|| मोह: विलीयते मनः म्रियते तृट्यति श्वासः निश्वासः । केवल - ज्ञानं अपि परिणमति अंबरे यस्य निवासः || सप्पें मुक्की कंचुलिय, जं विसु तं ण मुएइ । भोयहं भाउ ण परिहरइ, लिंग - -ग्गहणु करेइ ॥१५॥ सर्पेण मुक्ता कंचुकी यद् विषं तद् न मुंचति । भोगानां भावं न परिहरति लिंगग्रहणं करोति ॥ जो मुणि छंडेवि विसय- सुहु, पुणु अहिलासु करेइ । लुंचणु सोसणु सो सहइ, पुणु संसारु भइ ||१६|| यद् मुनिः त्यक्त्वा विषय-सुखं पुनः अभिलाषं करोति । लुंचनं शोषणं सः सहते पुनः संसारं भ्रमति ॥ विसय- सुहा दुइ दिवहडा, पुणु दुक्खहं परिवाडि । भुल्लउ जीव म वाहे तुहुं, अप्पा - खंधि कुहाडि ||१७|| विषय - सुखानि द्वौ दिवसौ पुनः दुखानां परिपाटिः । भ्रांत: जीव मा वाह्य त्वं आत्म-स्कन्धे कुठारं । उव्वलि चोप्पडि चिट्ठ करि देहि सुमिट्ठाहार । सयल वि देह णिरत्थ गय, जिह दुज्जण-उवयार ॥१८॥ उद्वर्तय मृक्षय चेष्टां कुरु देहि सुमिष्टाहारान् । सकलमपि देहे, निरर्थं गतं यथा दुर्जने उपकारः ॥ ,

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