Book Title: Doha Ppahudam
Author(s): H C Bhayani, Ramnik Shah, Pritam Singhvi
Publisher: Parshva International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 20
________________ दोहा-पाहुड हउं वर बंभणु ण वि वइसु , णउ खत्तिउ ण वि सेसु । पुरिसु णउंसउ इत्थि ण वि , एहउ जाणि विसेसु ॥३१॥ अहं वरः ब्राह्मणः नैव वैश्यः न क्षत्रियः नैव शेषः । पुरुषः नपुंसकः स्त्री नैव एवं जानीहि विशेषं ॥ तरुणउ वूढउ बालु हउं , सूरउ पंडिउ दिव्वु । खवणउ वंदउ सेवडउ , एहउ चिंति म सव्वु ॥३२॥ तरुणः वृद्धः बालः अहं शूरः पंडितः दिव्यः । क्षपणकः वंदकः श्वेतपटः एवं चिंतय मा सर्वं ॥ देहहो पिक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि । जो अजरामरु बंभु परु सो अप्पाण मुणेहि ॥३३॥ देहस्य प्रेक्ष्य जरा-मरणं मा भयं जीव कुरु । यः अजरामरः ब्रह्मः पर सतं आत्मानं जानीहि ॥ देहहि उब्भउ जर-मरणु , देहहिं वण्ण विचित्त । देहहो रोया जाणे तुहुं , देहहिं लिंगई मित्त ॥३४॥ देहे उभयं जरा-मरणं , देहे वर्णः विचित्रः । देहस्य रोगाः जानीहि त्वं , देहस्य लिंगानि मात्र ।। अत्थि ण उब्भउ जर-मरणु , रोय वि लिंगई वण्ण । णिच्छइ अप्पा जाणे तुहं , जीवहो णेक्क वि सण्ण ॥३५॥ अस्ति न उभयं जरा-मरणं रोगः अपि लिंगानि वर्णः । निश्चयेन आत्मा जानीहि त्वं जीवस्य नैका अपि संज्ञा ।। कम्महं केरउ भावडउ , जइ अप्पाणु भणेहि। तो ण वि पावहि परम-पउ , पुणु संसारु भमेहि ॥३६॥ कर्मणां भावं यदि आत्मानं भणसि । ततः अपि न प्राप्नोषि परमपदं पुनः संसारं भ्रमसि ।।

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