Book Title: Doha Ppahudam
Author(s): H C Bhayani, Ramnik Shah, Pritam Singhvi
Publisher: Parshva International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 21
________________ दोहा-पाहुड अप्पा मिल्लेवि णाणमउ , अवरु परायउ भाउ । सो छंडेविणु जीव तुहुं , झावहि सुद्ध-सहाउ ॥३७।। आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानमयं , अपरः परकीयः भावः । तं त्यक्त्वा जीव त्वं , ध्याय शुद्ध-स्वभावम् ॥ वण्ण-विहूणउ णाणमउ , जो भावइ सब्भाउ । संतु णिरंजणु सो जि सिउ , तहि किज्जइ अणुराउ ॥३८॥ वर्ण-विहीनः ज्ञानमयः , यः भावयति सद्भावम् । शान्तः निरंजनः स एव शिवः , तस्मिन् क्रियते अनुरागः ॥ तिहुयणे दीसइ देउ जिणु , जिणवरे तिहुवणु एउ । जिणवरे दीसइ सयलु जगु , को वि ण किज्जइ मेउ ॥३९॥ त्रिभुवने दृश्यते देवः जिनः जिनवरे त्रिभुवनं एतद् । जिनवरे दृश्यते सकलं जगत् कः अपि न क्रियते भेदः ॥ वुज्झहो वुज्झहो जिणु भणइ , को वुज्झउं हले अण्णु । अप्पा देहहिं णाणमउ , छुडु बुज्झियउ विभिण्णु ॥४०॥ बुध्यत बुध्यत जिनः भणति बुध्यामि हला अन्यत् । आत्मा देहस्य ज्ञानमयः यदि बुद्धः विभिन्नः ॥ वंदहो वंदहो जिणु भणइ , को वंदउं हलि इत्थु । णियदेहहिं वसंतयहो , जइ जाणिउ परमत्थु ॥४१॥ वंदत वंदत जिनं भणति कं वंदे हला अत्र । निज-देहे वसतः यदि ज्ञातः परमार्थः ॥ . उपलाणहि जोइय करहुलउ , दावणु छोडहि जिवं चरइ । जसु अखए णिरामए गयउ मणु, सो किवं बुहु जगे रइ करइ ॥४२।। उत्पर्याणय योगिन् करभं दामनं मुंच येन चरति । यस्य अक्षये निरामये गतं मनः सः किं बुधः जगति रतिं करोति ।।

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