Book Title: Dhaval Jaydhaval Sara
Author(s): Jawaharlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 19
________________ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला इस प्रकार धवल (१६ भाग), जयधवल (१६ भाग) तथा महाधवल (७ भाग), के कुल भाग ३९ (३९ पुस्तकें) तथा इनके कुल पृष्ठ १६, ३४१ होते हैं। इतने सहस्रों पृष्ठों प्रमाण हिन्दी अनुवाद (विशेषार्थों, प्रस्तावनाओं तथा शोधोपयोगी परिशिष्टों सहित) मुख्यतया परमश्रद्धेय गुरुवर्य पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री जी ने ही किया है । आपने इस महनीय श्रुतसेवा में जीवन के कई दशक पूरे कर दिए थे। आप वास्तव में प्रतिभा के पुंज थे, ज्ञान के कुंज थे । आप सागर के समान गम्भीर, देवजित के समान विद्वान्, शास्त्र -मर्मज्ञ, कुशल लेखक, निष्पक्ष विचारक और श्रेष्ठ करणानुयोगज्ञ थे । १० धवल आदि के अमृत बिन्दु : धवल १ : (१) ज्ञान के लिए जो आत्मा का व्यापार होता है वह दर्शन है (पृ. १५० ) (यानी ज्ञानोत्पत्ति हेतु इसके पूर्व किया गया प्रयत्न दर्शन है) (२) पूर्व स्वीकृत अन्य देवता के अपरित्याग के साथ-साथ अरहंत भी देव हैं, ऐसा अभिप्राय सम्यग्मिथ्यात्वी के होता है (पृ. १ / १६८) (३) उपशम सम्यकत्व भी क्षायिक वत् निर्मल है । पृ. १ / १७२ (४) आगम तर्क का विषय नहीं । विश्वास व श्रद्धा का विषय है । पृ. २०७, २७३ (५) पाँचों इन्द्रियावरण कर्म का क्षयोपशम सर्व आत्मप्रदेशों में होता है । पृ. २३५. (६) बादर जीवों के शरीर से सूक्ष्म जीवों का शरीर असंख्यात गुणा भी होता है । पृ. २५३ (७) त्रस बादर ही होते हैं । पृ. २७४ (८) एकेन्द्रियों में भी गृहीत मिथ्यात्व होता है । पृ. २७५, २७७ और द्रष्टव्य ध. ८/१६१ (९) बारहवें गुणस्थान तक भी असत्य रहता है । पृ. २९१ (१०) सम्यग्दर्शन के भी असंख्यात भेद हैं । पृ. ३६८ (११) चींटी के भी अण्डे होते हैं। पर वे गर्भज नहीं होते । पृ. ३४८, महाध. ७१ (१२) एक पर्याय (व्यंजन) में एक ही भाववेद रहता है । पृ. ३४८ (१३) ज्ञान आत्मा को नहीं जानता, उसे तो दर्शन जानता है । पृ. ३८५ ( और भी देखें पृ. १४८, वृ. द्रव्य सं, गाथा. ४४ पृ. २१५-२१६ (भावनगर), धवल ६/३४ जयधवल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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