Book Title: Dhaval Jaydhaval Sara
Author(s): Jawaharlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 89
________________ पं.फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला (१२) शंका- महिलाओं (स्त्रियों) को अंग पूर्व पढ़ने का अधिकार है या नहीं। आगम में महिलाओं को आर्यिका अवस्था में ग्यारह अंग का पाठी होना तो बताया है, परन्तु इससे अधिक नहीं। यथा- एकादशांग भृज्जाता साऽऽर्यिकाऽपि सुलोचना । हरिवंश पुराण १२/५२ अर्थात् आर्यिका सुलोचना भी ग्यारह अंग की धारी हुई। इसी तरह द्वादशांग का अध्ययन गृहस्थ नहीं कर सकता, ऐसा अनेक शास्त्रों में लिखा है। सभी पुरुषों ने दीक्षा ग्रहण करके फिर निग्रन्थ मुनि बनकर ही द्वादशांग का अध्ययन किया था। इसके लिए निम्न स्थल स्पष्ट प्रमाण हैं :- उत्तर पुराण ५१/९३, ५९/८-९,६३/३०७,६४/८-१०,६५/६-७,६७/१२-१४,७३७४/२४४ आदि । परमात्मप्रकाश में भी लिखा है कि जिनदीक्षां गृहीत्वा द्वादशांगं पठित्वा अर्थात् जिनदीक्षा-मुनिदीक्षा ग्रहण करने के बाद द्वादशांग पढ़े। फिर ... (१/९९ पृ. ९४ राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला) धवल १/७२ में भी बताया है कि षट्खण्ड का आद्य अंश भी जिनपालित को मनि दीक्षा देने के बाद पढ़ाया गया। क्योंकि यह अग्रायणीय से हबहू गृहीत है । अत: महिलाओं तथा अव्रती पुरुषों को पूर्वगत ग्रन्थ पढ़ने का अधिकार नहीं है, यह तो अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है । इस पर आप अपना अभिमत/आगम का हार्द प्रकट करावें। समाधान - हम तो इस बात के पक्षधर हैं कि महिलाओं या गृहस्थों को पूर्वगत शास्त्र पढ़ने का अधिकार नहीं है। हमने इसी बात को तुलसीप्रज्ञा नामक मासिक पत्रिका में भी प्रकाशित करावाई थी । वहाँ इस प्रकार मुद्रित हुआ है - व्रती श्रावक को ११ अंगों की वाचना दी जाए, इसमें कोई बाधा नहीं है । इतना अवश्य है कि व्रती श्रावक को सूत्र पठित क्रम से ही वाचना दी जानी चाहिए, अन्यथा वाचना देने वाला आचार्य निग्रह-स्थान का भागी होता है । (पु.सि. श्लोक १८)। किन्तु १४ पूर्वो की वाचना व्रती श्रावक को तो नहीं ही दी जा सकती, पर जिसने उपचरित महाव्रतों को अंगीकार किया है, ऐसी आर्यिका को भी नहीं दी जा सकती। जो वाचना देने वाले आचार्य के द्वारा दीक्षित होकर महाव्रतधारी निग्रन्थ दिगम्बर मुनि होते हैं वे ही १४ पूर्वो की वाचना (शिक्षा या ज्ञान का अध्ययन) लेने के अधिकारी हो सकते हैं, इन दोनों तथ्यों की पुष्टि उस इतिहास से भी होती है जो धवल १/७१ में निबद्ध है । वहाँ लिखा है कि जब आचार्य पुष्पदंत ने जीवस्थान सत्प्ररूपणा की रचना कर ली और स्वयं को अल्पायु जाना तब उन्होंने सर्वप्रथम जिनपालित को मुनिदीक्षा देकर अपना शिष्य बनाया। तब फिर उसके बाद ही उन्होंने जीवस्थान सत्प्ररूपणा के १. यही प्रश्न मैंने गुरुजी से .. ८१ में बनारस प्रवास के समय पूछा था । तदनन्तर इसी प्रश्न को मैंने जबलपुर वाचना के दौरान (जून ८४ ईस्वी) भी पूछा । सभी बार उनका एक ही उत्तर था कि “स्त्रियों या श्रावकों को “पूर्व" की एक Jain Educat पंक्ति पढ़ने का भी अधिकार नहीं है । आगम तथा इतिहास इसी का साक्षी है।" w-लेखकry.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100