Book Title: Dhaval Jaydhaval Sara
Author(s): Jawaharlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 98
________________ पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला ८९ समाधान २९ - पंचम काल में साढ़े सात करोड़ मुनि भरत क्षेत्र से निगोद में जाएँगे, ऐसा वाक्य आचार्य प्रणीत मूल ग्रन्थ में मेरे कहीं देखने में नहीं आया । समाधान ३० - “ अपक्वपाचनं उदीरणा " ऐसी उदीरणा की परिभाषा होने पर : ऊपर से जो द्रव्य उदयावलि में दिए जाते हैं, वहाँ उदयावलि में प्रविष्ट द्रव्यों में से भी उदीयमान निषेक में आगत द्रव्य की ही उदीरणा संज्ञा है । समाधान ३१ - जो मुनि जंगल में दीक्षित होते हैं उनको कमण्डलु-पिच्छिका देव आकार देते हैं । कभी-कभी ऐसे दीक्षित मुनि स्वयं तूमड़ी की कमण्डलु तथा दो-चार मयूर पंखों की पिच्छिका तैयार करके काम चला लेते हैं, ऐसा श.वा. में आया है । जयधवला का संशोधन कार्य करने जब मैं हस्तिनापुर (प्राचीन दि. जै. बड़ा मंदिर) गुरूजी के पास गया था तब उनसे मिले किंचित् प्रकीर्णक समाधान :- (मार्च १९८८ ई.) समाधान ३२ - (धवल ६/२७ सूत्र १४ की टीका) “ अवधिज्ञान में प्रत्यक्ष रूप से वर्तमान समस्त पर्याय विशिष्ट वस्तु का ज्ञान पाया जाता है।” इस पंक्ति का खुलासा यह है कि अवधि ज्ञान को अनन्त अर्थ पर्यायों का ज्ञान नहीं होता । अत: हमें तो ऐसा लगता है कि वर्तमान समस्त पर्यायों का भी ज्ञान अवधिज्ञानी को नहीं होता, अत: भगवद् वीरसेन स्वामी का यह कथन विचारणीय है । (दि. १७-३-८८) - समाधान ३३ - धवल ७ सूत्र ९९ की टीका पृ. २१८ - “ २ छासठ सागरों के भीतर मित्यात्व का काल”, ऐसा जो वहाँ लिखा है वहाँ भीतर = अन्त में, ऐसा अर्थ जानना । समाधान ३४ - (धवल ७/३८१ सूत्र २३) “यहाँ ४५ लाख योंजन वाले तिर्यक् प्रतर मात्र आकाश प्रदेशों में स्थित मनुष्य बताये", सो यहाँ तिर्यक् प्रतर से " वर्गराजू” अर्थ न लेकर इतना ही अर्थ लेना कि ४५ लाख योजन व्यास वाला विस्तृत क्षेत्र । ऊँचाई तो मनुष्य क्षेत्र की एक लाख योजन प्रमाण अकथित भी जान लेनी चाहिए । (दि. १८-३-८८) समाधान ३५ - गणधर ने ग्रन्थ (द्रव्यशास्त्र पुस्तकों) का निर्माण नहीं किया । गणधर ने तो बुद्धि में ही ग्रन्थ रचना की। उन्होंने तो द्वादशांग नहीं रचे । (दि. १८-३-८८) (नोट - शंका समाधान तो अनेक हुए थे, पर यहाँ वे ही समाधान दिए गए हैं जो सुगम हैं, विवाद के विषय नहीं है । - जवाहरलाल, भीण्डर, राज.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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