Book Title: Dhaval Jaydhaval Sara
Author(s): Jawaharlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 79
________________ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला दर्शनमोहक्षयण - प्रारम्भको भवति । क्षपणप्रारम्भ कालात्पूर्व तिर्यक्षु बद्धायुष्को उत्कृष्ट भोगभूमिजपुरुष तिर्यंक्षु एव उत्पद्यते, न तिर्यंक्स्त्रीषु ।" यह कह कर बद्धायुष्क rai की उत्कृष्ट भोग भूमिज पुरुषों में ही उत्पत्ति बताई । सो यहाँ जो उत्कृष्ट आया पद आया है वह भोग भूमिपद का विशेषण न होकर “पुरुष” पद का विशेषण है, ऐसा समझना चाहिए । अथवा, यह प्रभाचन्द्रीय कथन मान्यता भेद से सम्बन्ध रखता हो तो कोई आश्चर्य नहीं । ७० क्षायिक समकित सब दिन एक समान लब्धिसार क्षपणासार गा. १६६ में लिखा है कि सात प्रकृति के क्षय से जघन्य क्षायिक लब्धि होती है ("न कि जघन्य क्षायिक सम्यक्त्व) तथा ४७ प्रकृतियों के क्षय से उत्कृष्ट क्षायिक लब्धि (न कि उत्कृष्ट क्षायिक सम्यक्त्व) होती है। ऐसा कहा है - सत्तण्हं पयडीणं खयादु अवरं तु खइयलद्दी दु । उक्कस्स खइयलद्दी घाइचउक्कखएण हवे ॥ १६६ ॥ इस गाथा में कहीं आचार्य ने ऐसा नहीं कहा है कि सात प्रकृतियों के क्षय से जघन्य क्षायिक सम्यक्त्व होता है तथा ४७ प्रकृति क्षय से उत्कृष्ट क्षायिक सम्यक्त्व । यहाँ क्षायिक सम्यक्त्व का प्रकरण न होकर मात्र क्षायिक लब्धिसामान्य का प्रकरण है । पाठक इसी बात को नहीं पकड़ पाने के कारण इसे मात्र क्षायिक सम्यक्त्व पर ही घटित कर लेते हैं । तथा फिर क्षायिक सम्यक्त्व के भी जघन्य व उत्कृष्ट भेदों की कल्पना करते हैं । जो अनुचित है । क्योंकि “ क्षायिक भावानां न हानि: नापि वृद्धिरिति” (श्लोकवार्तिक अ. १ सूत्र १ श्लोक ४४-४५ टीका) अर्थात् क्षायिक भावों की वृद्धि और हानि नहीं होती । और क्षायिक भाव विवक्षित कर्म के क्षय से होता है । अकलंकदेव ने कहा है कि “आत्मनो हि कर्मणोत्यन्तविनिवृत्तौ विशुद्धिरात्यन्तिकी क्षय इत्युच्यते ।” (राजवार्तिक २ ।१ ।२ ज्ञानपीठ प्रकाशन) अर्थात् आत्मा से कर्मों के सम्पूर्णत: चले जाने पर आत्यन्तिकी (= स्थायी एवं सम्पूर्ण) विशुद्धि होती है वह “क्षय " ऐसी कही जाती है । अतः “ क्षायिक सम्यक्त्व के चौथे में जघन्यता है तथा ऊपर- २ क्रमशः वृद्धि (वर्धमानता ) ” ऐसा नहीं होता । कहा भी है - चौथे गुणस्थान के क्षायिक सम्यग्दर्शन और तेरहवें गुणस्थान के सम्यग्दर्शन में क्षायिक भाव की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है । ( पं. रतनचन्द मुख्तार व्यक्तित्व एवं कृतित्व पृ.३६८ चरम पंक्ति ) ऐसी स्थिति में उक्त गाथा का अर्थ ऐसे " Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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