Book Title: Dhaval Jaydhaval Sara
Author(s): Jawaharlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 86
________________ पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला (६) शंका- क्या अस्तित्व आदिगुण सम्यग्दृष्टि तथा मिथ्यादृष्टि दोनों के शुद्ध ही होते हैं । कैसे मिथ्यादृष्टि के अनन्त गुणों का अनन्तवाँ भाग शुद्ध होता है वह किस अपेक्षा से कहते हैं । इस विषय में यदि कोई आगम-प्रमाण हो तो भी दिलाने का अनुग्रह होवे। समाधान- जीव के जो अस्तित्व आदि सामान्य गुण होते हैं वे निरावरण ही होते हैं, चाहे वह मिथ्यादृष्टि हो या सम्यग्दृष्टि । और ऐसे गुणों की पर्यायें भी निरावरण होने से शुद्ध कहलाती हैं। पर्यायों में शुद्ध-अशद्धपने का व्यवहार आवरण की अपेक्षा ही किया जाता है। जो ऐसा कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि के भी अनन्त गुणों का अनन्तवां भाग शुद्ध होता है वे क्षयोपशमभाव की अपेक्षा कहते होंगे। क्योंकि क्षयोपशम अवस्था में जो ज्ञान आदि भाव प्रकट रहता है वह प्रकट अंश ज्ञान आदि रूप ही कहा जाएगा । येनांशेन विशुद्धि : इत्यादि वचन जो कहा गया है इसमें चारित्र की मुख्यता है । यह उसका उदाहरण है। __ (वाराणसी, दि १६-११-८० ई) (७) शंका- जिसका आगे उदय होना है ऐसी प्रकृतियों का ही इस भव में बंध होता है, ऐसा माने में कैसी आपत्ति होती है । अपने विचारों द्वारा लाभान्वित कराने की कृपा कीजिए। समाधान- अभव्यजीव बहुत हैं उनके मन: पर्यय ज्ञानावरण तथा केवलज्ञानावरण का बन्ध होता है । इसलिए यह मान्यता योग्य नहीं कि जो भाव आगे प्रकट हो उसी का बन्ध हो । बन्ध का कारण योग और कषाय है। अत: जब जब जैसे कषाय व योग होते हैं तब वैसा (कषाय व योग के अनुसार) बन्ध होता है । उसमें भी ज्ञानावरण के पाँचों भेद ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ हैं, इसलिए किसी भी जाति की कषाय क्यों न हो उनका दसम गुणस्थान तक बन्ध अवश्य होगा। क्षपक श्रेणि में आठवें गुणस्थान में भी परभव सम्बन्धी देवगति आदि का बन्ध होता है, पर वह आगे देव नहीं होता, क्योंकि वह तो उसी भव से मोक्ष जाता है । “बन्ध हुआ है इसलिए आगे वह पर्याय होनी ही चाहिए", ऐसा कोई नियम नहीं है, अन्यथा संक्रमण आदि की व्यवस्था ही समाप्त हो जाएगी । (देखें ज.ध. १४/१७८) ___(वाराणसी, दि १६-११-८० ई) (८) शंका- केवलज्ञान होने पर कमण्डलु पिच्छि का का क्या होता है। समाधान- केवलज्ञान होने पर साधु के कमण्डलु पिच्छी का क्या होता है, कोई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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