Book Title: Dhaval Jaydhaval Sara
Author(s): Jawaharlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 85
________________ ७६ . पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला (३) शंका- षट्प्राभृत में वर्णी श्री श्रुतसागर जी का यह संस्कृत अर्थ समुचित नहीं है कि अविरत सम्यक्त्वी को संख्यात गुणश्रेणि निर्जरा होती है। क्योंकि किसी भी प्राचीन या मौलिक गन्थ से या उसी मूलगाथा से उसका समर्थन नहीं होता। गुणश्रेणि निर्जरा तो असंख्यात गुणश्रेणि निर्जरा ही होती है । हाँ, उसमें ऊपर से प्रक्षिप्यमान द्रव्य असंख्यातगुणाहीन, संख्यातगुणाहीन आदि रूप चतुःस्थान पतित हो सकता है । आप इस पर चिन्तन कर अपना मार्गदर्शन प्रदान कराने का अनुग्रह करावें। समाधान - षट्प्राभृत में जो पं. जयचन्द जी ने या संस्कृत टीकाकार ने (या इसका पुन: अनुकरण करने वाले अन्य विद्वानों ने) मुलगाथा का खलासा किया है. पर मैंने ऐसा कहीं नहीं पढ़ा कि अविरत सम्यग्दष्टि के संख्यातगणी निर्जरा होती ही रहती है। अत: मेरे ख्याल से आगम के इस वचन को सामान्य कथन जानना चाहिए। (वाराणसी, २०-१-८०) शंका- यह कथन आगम का, यह अनागम का, ऐसा निर्णय किस आधार बिन्दु को लेकर किया जाना चाहिए। समाधान - आगम के निर्णय करने की कसौटी यह है कि किसी भी रचना की प्रमाणता पूर्वकालीन रचना के आधार पर होती है। इस प्रकार पूर्व-पूर्व की प्रमाणता के आधार पर किसी विषय के निर्णय तक पहुँचा जाता है । तभी कोई कथ्य सर्वज्ञ-कथित माना जा सकता है। (वाराणसी, २९-१०-८०) (५) शंका- बाहुबली की कमण्डलु पिच्छी मूर्तियों के साथ नहीं दर्शाई है । जबकि ये बेल सहित मूर्तियां तो मुनि अवस्था की ही है । क्या उनके कमण्डलु-पिच्छी नहीं थे। कमण्डलु पिच्छी किनके, किस अवस्था में छूटते हैं, स्पष्ट करावें । समाधान - केवलज्ञान होने पर तो कमण्डलु-पिच्छी स्वयं छूट जाते हैं। छूट तो ध्यान की अवस्था में ही जाते हैं, परन्तु केवल ज्ञान होने पर वे सर्वदा के लिए छूट जाते हैं । इसका कारण यह है कि जिस प्रयोजन से कमण्डलु-पिच्छी तथा शास्त्र के स्वीकार करने की अनुज्ञा होती है, वह प्रयोजन नहीं रहने से केवलज्ञान होने पर उनकी आवश्यकता ही नहीं रहती। (वाराणसी, १६-११-८०) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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