Book Title: Dhaval Jaydhaval Sara
Author(s): Jawaharlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 84
________________ व्याख्यान-४ मेरी कतिपय शंकाएँ/गुरुवर्य श्री पं. फूलचन्द्र जी के समाधान (१) शंका- अनुजीवी तथा प्रतिजीवी गुण, ऐसे गुणों के दो भेद मात्र राजमल जी आदि पण्डितों के द्वारा किए हए हैं। मूल आचार्य प्रणीत ग्रन्थों में इनका (इन भेदों का) दर्शन नहीं होता, अत: कृपया आप अपना मार्गदर्शन देवें। समाधान - प्राचीन ग्रन्थों में यद्यपि अनुजीवी गुण तथा प्रतिजीवी गण ऐसा भेद दृष्टिगोचर नहीं हुआ है : परन्तु कर्मों का घातिया कर्म तथा अघातिया कर्म यह भेद इस बात का सूचक तो है ही, कि गुण दो प्रकार के होने चाहिए । श्री धवल प्रथम पुस्तक पृ.४७-४८ से भी इसकी सूचना मिलती है। इसलिए श्री पं.राजमल जी ने गुणों के जो दो भेद स्वीकार किए हैं वे अकारण नहीं है। हम समझते हैं कि इससे आपका समाधान हो जाएगा। फिर भी आपके मन में कोई विकल्प हो तो अवश्य लिखना। (वाराणसी दि. ३०-१०-७९) (२) शंका- किसी भी मूल दि. जैन शास्त्र का हार्द यह नहीं है कि चौथे गुणस्थान में निरन्तर गुणश्रेणिनिर्जरा होती ही रहती है । सिद्धान्तशास्त्रों में तो मात्र इतना लिखा है कि असंयत सम्यग्दृष्टि के गुणश्रेणी-निर्जरा मात्र उपशमसम्यक्त्व प्राप्ति, दर्शनमोह उपशामना, क्षपणा तथा अनन्तानुबंधी विसंयोजना के काल में मात्र अन्तर्मुहूर्त काल तक गुणश्रेणि निर्जरा होती हैं, अन्य कालों में नहीं । कृपया आप समाधान देकर आगम का हार्द सम्प्रकट करावें । समाधान - आपका कथन ठीक ही है सम्यक्त्वी के उपशम, क्षायिक या अनन्तानुबंधी की विसंयोजना के समय अन्तर्मुहूर्त काल तक गुणश्रेणि निर्जरा होती है । अन्य काल में नहीं। (वाराणसी दि. २०-१-८०) नोट- इस प्रकरण में वे १४ शंका-समाधान दिए गए हैं जो कि मैने पत्राचार द्वारा प्राप्त किए थे। इनमें भी जटिल शंका समाधान छोड़ दिए गए हैं । सुगम/सर्वजनोपयोगी शंका समाधानों को ही यहाँ लिया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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