Book Title: Dhaval Jaydhaval Sara
Author(s): Jawaharlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 80
________________ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला ७१ समझना चाहिए :- सत्तहं पयडीणं खयादु खइयं सम्मत्तं होदि सा चेव अवरं खइयलद्दी । घाइचउक्कखएण केवलणाणं हवे, तं केवलणाणं चेव उक्कस्सखइयलद्दी । इसी सब बात को लब्धिसारकार ने अपने ग्रन्थ त्रिलोकसार में कही है - टीकाकार ने उसे स्पष्ट इस तरह किया है .. केवलज्ञानस्य अविभागप्रतिच्छेदाः । एतावदेव द्विरूपवर्गधाराण - मन्तम् । इदमेव प्रमाणज्येष्ठम्। एतदेव उत्कृष्टं क्षायिकलब्धिनाम । अर्थ .. केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं । यही द्विरूपवर्गधारा का अन्तिम स्थान है । यही उत्कृष्ट प्रमाण है और इसी का नाम उत्कृष्ट क्षायिक लब्धि है। नोट :- यहाँ स्पष्टत: केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदों को उत्कृष्ट क्षायिक लब्धि कहा है, न कि तेरहवें गुणस्थान के क्षायिक सम्यक्त्व को । (त्रिलोकसार गा७२ टीका) अब रह जाती है मात्र बात त्रिलोक सार गा.७१ की टीका की। वहाँ इस प्रकार लिखा: ततोऽनंतस्थानानि गत्वा तिर्यग्गत्यसंयतसम्यम्दष्टौ जघन्यक्षायिकसम्यक्त्वरूपलब्धे: अविभागप्रतिच्छेदाः, ततोऽनंतस्थानानि गत्वा वर्गशलाका, ततोऽनन्तस्थानानि गत्वा अर्धच्छेदाः, ततोऽनंतस्थानानि गत्वा अष्टममूलं, तस्मिन्नेकवारं वर्गिते सप्तममूलं, तस्मिन्नेकवारं वर्गिते षष्ठमूलं, तस्मिन्नेकवारं वर्गिते पंचममूलं, तस्मिन्नेकवारं वर्गिते चतुर्थमूलं, तस्मिन्नेकवारं वर्गिते तृतीयमूलं, तस्मिन्नेकवारं वर्गिते द्वितीयमूलं तस्मिन्नैकवारं वर्गिते प्रथममूलं चोत्पद्यते । (गाथा७१) एकवारं तस्यादिमूलस्य वर्गे गृहीते केवलज्ञानस्य अविभागप्रतिच्छेदाः। ...एतदेव उत्कृष्टं क्षायिकलब्धिनाम (...गा.७२) अर्थ- जघन्यलब्ध्यक्षरश्रुतज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों से अनन्त स्थान आगे जाकर तिर्यंच गति में असंयत सम्यग्दृष्टि जीव के जघन्य क्षायिकसम्यक्त्व लब्धि के अविभाग प्रतिच्छेदों के प्रमाण की प्राप्ति होती है । उससे अनंत स्थान आगे जाकर केवलज्ञान की वर्गशलाकाओं का प्रमाण प्राप्त होता है। उससे अनंत स्थान आगे जाकर केवलज्ञान के अर्द्धच्छेदों का प्रमाण प्राप्त होता है। उससे अनन्त स्थान आगे जाकर केवलज्ञान का अष्टम मूल प्राप्त होता है। फिर आगे के निरन्तर वर्गस्थान केवलज्ञान से सप्तम, षष्ठ, पंचम, चतुर्थ, तृतीय, द्वितीय व प्रथम वर्ग मूल रूप यथाक्रम हैं । फिर अन्तिम वर्गस्थान है केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदस्वरूप यही उत्कृष्ट क्षायिक लब्धि है। नोट- यहाँ देखना यह है कि गोम्मटसार जीवकाण्ड की जीवतत्त्वप्रदीपिका नामक कन्नड़ टीका तथा भट्टारक नेमिचन्द्र कृत संस्कृत जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका, इन दोनों टीकाओं का पर्याप्तिप्ररूपणा के पूर्व का स्थल (गा.११८ की पीठिकारूप) त्रिलोकसार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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