Book Title: Dhaval Jaydhaval Sara
Author(s): Jawaharlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 35
________________ २६ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला (१७) जितने वचनमार्ग हैं, उतने ही नयवाद हैं। जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय (परमत = विभिन्न मत) है। (१८) अचक्षुदर्शन छद्मस्थों के सदा पाया जाता है। (१९) हमारे दर्शनोपयोग का जघन्य काल संख्यात आवली है, एक समय नहीं । पृ. ३०१ । इसी तरह विभिन्न ज्ञानों, दर्शनों, लेश्याओं, ध्यानों व कषायों के जघन्य व उत्कृष्ट काल का निरूपण पृ. ३०१. से ३३० पर द्रष्टव्य है । जयधवल पु. २:(१) क्षायिक सम्यक्त्वी किसी भी भोगभूमि में उत्पन्न हो सकता है । पृ. २६१ (२) छ: मास ८ समय में निरंतर ८ सिद्ध समय होने का नियम नहीं है । पृ. ३६०-६१ (३) प्रथम नरक में क्षायिक सम्यक्त्वी की जघन्य आयु ८४ हजार वर्ष उत्कृष्ट पल्य के असंख्यातवें भाग कम १ सागर होती है । पृ. २५९ असंज्ञी पंचेन्द्रिय के तीनों वेद होते हैं । पृ. २९ (और भी देखें धवल १/३४६ सूत्र १०७, धवल ४/३६८, तत्त्वार्थवृत्तिपद १/७/३९३ स.सि.ध. ७/५५५ गो.जी. २८०-८१ महाधवल २/३०४/ आदि) (५) उपशम सम्यक्त्वाभिमुख अंतिम समयवर्ती मिथ्यात्वी के २६, २७, २८ में से किसी एक प्रकृति समूह प्रमाण मोहनीय का सत्वस्थान संभव है । पृ. २५३-२५६ (६) दुरानुदूर भव्य नित्य निगोद-भाव को प्राप्त हैं । पृ. ३८९ : २४,९०, ४० (७) प्रथम नरक में असंख्यात क्षायिक सम्यक्त्वी (यानी २१ के स्थान वाले) हैं । यही संख्या पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में तथा प्रत्येक ग्रेवैयक में क्षायिक सम्यक्त्वी जीवों की है। पृ. ३१९ जयधवल पु. ३:(१) अनन्तानुबंधी की क्षपणा । विसंयोजना का विस्तृत निरूपण पृ. २४६-४८ तथा जयध. ५/२०७ (२) प्रतिपक्षनय का निराकरण करने वाला नय समीचीन नय नहीं होता । पृ. २९२ (३) संज्ञी पर्याप्त के मिथ्यात्व का जघन्य स्थितिबंध भी अन्त: कोटा-कोटी सागर होता है । पृ. ४३३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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