Book Title: Dhaval Jaydhaval Sara
Author(s): Jawaharlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 60
________________ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला पर प्रथम नरक की ८४ हजार वर्ष प्रमाण आयु दूसरी बार बांधी। इस पर हमारा निवेदन है कि संसार भर के किसी भी दिगम्बर जैन आगम में ऐसा नहीं लिखा है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि, या कैसा भी सम्यग्दृष्टि नरकायु का बंध करता है । (गो.क. ९५, धवल ८/४२, ४३, जयधवल १४/३४, महाधवल १/३९, धवल ८/१२३, पंचसंग्रह आदि) अत: पं. सा. का यह कथन अत्यन्त मिथ्या है । फिर दूसरा हमारा निवेदन है कि श्रेणिक को जो पण्डित जी के कथनानुसार दो आयु बंध हुआ है तथा श्रेणिक प्रथम नरक की ८४ हजार वर्ष आयु ही भोगेंगे, यह भी निश्चित है । अर्थात् श्रेणिक महाराज दो बार आयुबंध करके नरक पर्याय में दूसरी बार की न्यून आयु ही भोगेंगे । इस स्थिति में श्रेणिक के नारकी पर्याय में भी ८४००० वर्ष आयु पूर्ण होने पर अकाल मरण मानना पड़ेगा। क्योंकि पण्डित जी ने ही बिन्दु ख: ठ व छ में लिखा है कि “पहले बार आयु बांधी उसकी अपेक्षा मरण न होकर दूसरी बाद बद्ध आयु की अपेक्षा जो मरण होता है वही अकाल मरण है।" इस नियम के अनुसार तो श्रेणिक महाराज का प्रथम नरक में ८४००० वर्ष पूर्ण करने पर जो मरण होगा वह अकालमरण कहलाएगा। परन्तु यह भी मिथ्या है । (देखो आयु बंध संबंधी विशिष नियम नं. ४ में लिखा है कि नारकी का कभी भी अकाल मरण नहीं होता) इस प्रकार पण्डित जी ने यहाँ एक ही कथन में दो भयंकर भूलें कर दी हैं। बिन्दु ज में पण्डित जी लिखते हैं कि औपपादिक जीवों के (देवादि के) पूर्व भव में (यानी मनुष्य व तिर्यंच पर्याय में) उत्तर भव (देवादि भव) की आयु का अपवर्तन नहीं होता। परन्तु यह कथन भी मिथ्या है । (देखो आयु बंध सम्बन्धी विशिष्ट नियम नं.५) विस्तार इस प्रकार है - (१) एक्कोविराहिदसंजदो वेमाणिय देवेसु माउइंबंधिदूण तमोवट्टणाघादेण घादिय भवणवासियदेवेसु उववण्णो। अर्थ - विराधना की है संयम की जिसने ऐसा कोई संयमी मुनि वैमानिक देवों में आयु को बांध करके, फिर बाद में अपवर्तना घात से घात करके भवनवासी देवों में उत्पन्न हुआ। (धवल ४/३८३, ३८५ आदि) (२) उक्कस्साउअं बंधिय पुणो तं घादिय मिच्छत्तं गंतूण अग्गिदेवेसु उववण्ण-दीवायण ... अर्थ - उत्कृष्ट संयम निधान १०८ मुनि द्वीपायन ने उत्कृष्ट आयु (अनुत्तर विमानवासी देवों की आयु) बांधी थी। फिर उसका अपवर्तना घात कर मिथ्यात्व को प्राप्त होकर अग्निकुमार जाति के भवनवासी मिथ्यादृष्टि देवों में वे द्वीपायन उत्पन्न हुए। (धवल १२/१९-२१) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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