Book Title: Dhaval Jaydhaval Sara
Author(s): Jawaharlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 54
________________ ४५ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला अन्नपाननिरोध, शस्त्र इत्यादि बाह्यकारण विशेष से अकालमरण होता है। हिम, अग्नि, पानी, बहुत ऊंचे वृक्ष और पर्वतों पर चढ़ने और गिरने के समय होने वाले अंग भंग से, रसविद्या के योगधारण और अनीति के नाना प्रसंगों से आयु क्षीण होती है। (भावपाहुड २५-२६, सुरबबोधा वृत्ति २/५३, तत्त्वार्थवृत्ति, श्लोकवार्तिक २/५३, गो.क ५७ आदि) (२०) जितनी भुज्यमान आयु शेष रहने पर आयु-बंध होवे, तब उस बध्यमान आयु की आबाधा उस शेष भुज्यमान आयु प्रमाण ही होती है । जैसे किसी ने वर्तमान आयु में १० वर्ष शेष रहने पर आगामी भव की आयु बांधी तो आगामी आयुबंध की आबाधा भी १० वर्ष होगी। सारत: बध्यमान आयु की आबाधा शेष भुज्यमान आयु प्रमाण होती है। (गो.क. ९१७, धवल ६ पृ.१६६ तथा महाधवल २/१८) अकालमरण के लिए पूर्व भव में दो बार आयु बंध जरूरी नहीं ___पं. मोतीचन्द जी कोठारी व्याकरणाचार्य ने “क्रमबद्धपर्याय समीक्षा” नामक पुस्तक लिखी है । पुस्तक में आपने एक भूल कर दी है । वह करणानुयोग सम्बन्धी भूल है। जिस भूल को आपने इस पुस्तक के पृष्ठ ३०९-१०, ३१७, ३२०, ३२२-२४, ३२७, ३४०, ३८२ पर बार-२ दोहराई है । आपका संक्षेप में मत इस प्रकार रहा है - जिस जीव को आगे की पर्याय में अकालमरण होना है वह अकालमरण वाले भव से पहले वाले भव में दो बार आयुबंध करता है। उसमें पहली बार तो ज्यादा आयु का बंध करता है दूसरी बार (दूसरे किसी अपकर्ष में) उतनी ही आयु का बंध करता है जितनी आयु में कि आगामी भव में अकालमरण होना उनके समस्त कथन के सार का सार यह है कि अकाल मरण के पूर्व वाले भव में वह जीव जितना आगामी भव में जीना है उतनी आयु भी बांधता है तथा अधिक आयु भी बांधता है । उदाहरण - जैसे मैं अभी मनुष्य हूँ तथा बाद में तिर्यंच बनूँगा । तथा तिर्यंच भव में १०० वर्ष की आयु लेकर जाऊँगा और अकाल मरण द्वारा ५० वर्ष में ही मर जाऊँगा। तो मैं अभी की मनुष्य पर्याय में दो बार आयु बंध करूँगा । पहली बार १०० वर्ष की , दूसरी बार ५० वर्ष की । यह पण्डित मोतीचंद जी का कथन है । जिसका अर्थ यह हुआ कि अकालमरण प्रमाण आयु को जीव पूर्व भव में बाँध कर आता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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