Book Title: Dhaval Jaydhaval Sara
Author(s): Jawaharlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 42
________________ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला ३३ जीव के जिस भव की आयु बंधती है उसे वहीं उसी भव में जाना पड़ता है, वह बदल नहीं सकती । जैसे किसी ने तिर्यंच आयु का बंध कर लिया तो वह बाद में सम्यग्दृष्टि भी क्यों नहीं हो जाए, पर तिर्यंचायु को नष्ट नहीं कर सकता, उसे तो मर कर तिर्यंच ही बनना पड़ेगा । यह बात जरूर है कि सम्यक्त्व के प्रभाव से वह तिर्यंचों में से सुखी व श्रेष्ठ तिर्यंचों (भोगभूमिज) में जन्म ले लेता है । पर तिर्यंच आयु को काट नहीं सकता (धवल १०/२३९) आयु बन्ध का कारण - आयु का बंध जीव मध्यपरिणामों से, छहों लेश्याओं में से किसी भी लेश्या के होते हुए कर सकता है (धवल १२ / २७ तथा महाबन्ध पु. २ पृ. २७८- २८१ तथा धवल ८/३२०-३५८ संपादक पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री) यदि यह कहा जाए कि गोम्मटसार जीवकाण्ड बड़ी टीका पृ.९१३ में तो लिखा है कि कपोतलेश्या के उत्कृष्ट अंश के आगे तथा तेजो लेश्या के उत्कृष्ट अंश के पहले ही आयुबंध योग्य ८ अंश कहे हैं। तो उत्तर यह है कि उसमें भी छहों लेश्याएँ आ गई हैं । इसके विशेष परिज्ञान के लिए पं. रतनचन्द्र जी मुख्तार द्वारा लिखित गोम्मटसार जीवकाण्ड की बड़ी टीका पृ.७११ तथा वहाँ का स्पष्टीकरण पढ़ना चाहिए । आयुबन्ध के योग्य ८ मध्यम अंश निम्न होते हैं जिनसे कि आयुबन्ध होता है : १. उत्कृष्ट कापोत कृष्ण-नील मध्यम २. कृष्ण नील कापोत मध्यम, जघन्य पीत ३. कृष्ण नील कापोत पीत मध्यम, जघन्य पद्म ४. कृष्णादि पाँच मध्यम तथा जघन्य शुक्ल ५. जघन्य कृष्ण, शेष पाँच लेश्या मध्यम ६. जघन्य नील तथा चार मध्यम ७. जघन्य कापोत तथा तीन शुभ लेश्या मध्यम ८. मध्यम पद्म शुक्ल तथा उत्कृष्ट पीत इस प्रकार उत्कृष्ट कापोत अंश से उत्कृष्ट पीत लेश्यांश के पूर्व तक ८ लेश्यांश हो जाते हैं, जो छहों लेश्या स्वरूप हैं तथा आयुबंधों के कारण होते हैं । गो. जी. बड़ी टीका (शास्त्राकार) में प्रदत्त चित्र का स्पष्टीकरण न हो पाने से ही आम व्यक्ति को यह शंका हो जाया करती है कि उत्कृष्ट कापोत से उत्कृष्ट पीत के मध्य छहों लेश्या कैसे आ सकती है, पर ऐसा नहीं है । कृष्ण नील तथा कापोत लेश्याओं के उदय से नरकायु का बंध होता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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