Book Title: Dhaval Jaydhaval Sara
Author(s): Jawaharlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 37
________________ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला देखी जाती है । पृ. २१७ सम्यक्त्व तथा संयम आदि के बिना, एकेन्द्रियों में क्षपित क्रिया द्वारा उत्कृष्टरूप से कर्मों की निर्जरा होती है । पृ. २४९ अतिथिलाभ सम्भव न होने पर भी यदि मनुष्य भोजन के समय सदा अतिथियों की प्रतीक्षा करके ही भोजन करता है तो भी वह दाता है । पृ. २८७ (६) बन्ध के अभाव में संक्रम तथा उत्कर्षण नहीं होते । पृ. ९५ जयधवल पु.७:(१) उदयावली सकल करणों के अयोग्य होती है । पृ. २४१ (२) गुरु का उपदेश मृषा (झूठ) नहीं हो सकता। पृ. ९४ (३) बाह्य कारणों की अपेक्षा आभ्यन्तर कारण बलिष्ठ होता है । पृ. ९६ (४) उत्कर्षण के विशिष्ट नियम । पृ. २४४ आदि (५) उपशम श्रेणि में मरा जीव अहमिन्द्र होता है । पृ. ३५१ जयधवल पु.८:(१) अपकर्षण सम्बन्धी विधान । पृ. २४२ जयधवल पु. ९:(१) प्रथम बार उत्पन्न सम्यक्त्व का नाश जरूरी नहीं। पृ. ३१० (२) अनुभाग काण्डक द्वारा अनन्त बहुभाग प्रमाण अनुभाग का ही घात हो यह नियम नहीं है, अनन्तवां भाग आदि भी घातित हो सकते हैं । पृ. १२८ जयधवल पु. १०:(१) सम्मूर्च्छन तिर्यंच के सम्यक्त्व तथा संयमासंयम होता है । पृ. ६४ (२) नरक में संख्यात बहुभाग जीव (यानी सर्वाधिक जीव) तो क्रोधी ही होते हैं । पृ. (३) अर्द्धपुद्गलपरावर्तन शेष रहने के प्रथम समय में सम्यक्त्व ग्रहण किया। पृ. ९२, १३८ (४) अनन्तानुबंधी विसंयोजक भी सासादन में आता है । तथा पृ. १२४ ११६ (यह भी देखें ४/२४) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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