Book Title: Dhaval Jaydhaval Sara
Author(s): Jawaharlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 24
________________ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला (५) प्रत्येक जीव द्रव्य में ज्ञान है । पृ. ६९ (ज. ध १ / ४५) (६) एक कार्य सर्वत्र एक ही कारण से नहीं उत्पन्न होता । पृ. ६९ (७) अघाती कर्मों का क्षयोपशम नहीं होता । पृ. ७४ (८) गमन को योग नहीं कहा जा सकता । पृ. ७७ (९) स्पर्शनेन्द्रियावरण, वीर्यान्तराय, मतिश्रुतज्ञानावरण इनके सर्वघाती स्पर्धकों का उदय का सर्व काल में अभाव है । पृ. ८८ (१०) ज्ञानावरण कर्म का उपशम नहीं होता । पृ. ८९ (११) दर्शन का व्यापार ( = Jain Education International १५ विषय) आत्मा में होता है, बाह्य पदार्थों में नहीं । पृ. ९९ (१२) मिथ्यात्व भी लेश्या है । पृ. १०५ (१३) एक तिर्यंच अन्य व्रती तिर्यंच को शुष्क पत्ते ( भोजन हेतु) दान में देता है । पृष्ठ १२३ (१४) षट्खण्डागम सूत्र भगवान् के मुख से निकले हैं। पृ. १४७ (द्रष्टव्य ३/२८२) (१५) विभंग ज्ञान छह पर्याप्तियों से पर्याप्त होने पर ही होगा । पृ. १६४ (१६) चक्षुदर्शनोपयोग का जघन्य व उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त ही है । पृ. १७३ (१७) अभव्यपना, यह जीव की अविनाशी व्यंजन पर्याय है । पृ. १७८ (१८) मात्र अन्तर्मुहूर्त आयुवाले संज्ञी सम्भूर्च्छन तिर्यंच के पंचमगुणस्थान की प्राप्ति तथा मृत्यु: फिर स्वर्ग गमन (पृ. १९५) (१९) पर्याप्तकों की आयु कभी भी क्षुद्रभव ग्रहण प्रमाण नहीं होती । (पृ. २१४) (२०) क्षुद्रभव आयुवाले नियम से अपर्याप्त व नपुंसक वेदी ही होते हैं । पृ. २१४ (२१) द्वितीयोपशमसम्यक्त्व का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । पृ. २३१ (२२) जगत् में मनुष्य अपर्याप्त कदाचित् नहीं भी होते । पृ. २३८, ४८१ आदि (२३) अपर्याप्तों में चक्षुदर्शनोपयोग तथा द्रव्यचक्षुः दर्शन नहीं होते । पृ. २९१ (२४) नारकियों में व्रत की गन्ध भी नहीं है । पृ. २९९ (२५) बिना महाव्रतों के तैजससमुद्घात नहीं होता । पृ. २९९ (२६) अपर्याप्तावस्था में विभंगज्ञान व मन:पर्यय नहीं होते । पृ. ३५२-५३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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