Book Title: Dhaval Jaydhaval Sara
Author(s): Jawaharlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 28
________________ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला धवल पु. १२ : (१) अष्टमध्य प्रदेश में भी कर्मबन्ध होता है । पृ. ३६७ (२) मिथ्यात्वी के उत्कृष्ट संक्लेश के समय शुभ प्रकृति का बन्ध नहीं होता, ही बंधती है । पृ. १९ (३) कर्म में अज्ञान उत्पन्न करने की शक्ति है । पृ. २, ३ (४) श्रोताओं के मूर्ख होने पर वक्ता का वक्तापन भी व्यर्थ है । पृ. ४१४ (५) श्रुतज्ञान तथा मन:पर्यय का दर्शन नहीं होता, क्योंकि ये ज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होते हैं । अथवा, श्रुत तथा मन:पर्यय ज्ञान के भी दर्शन हैं, क्योंकि इनके द्वारा अवगत अर्थ का संवदेन वहाँ भी पाया जाता है । ऐसा स्वीकार करने पर पूर्व कथन के साथ विरोध भी नहीं होता, क्योंकि उनके कारण भूत दर्शन का पूर्व में प्रतिषेध किया है । पृ. ५०२ (६) शुभ प्रकृतियों का अनुभाग घात विशुद्धि, केवलि समुद्घात तथा योग-निरोध से भी नहीं होता । पृ. १८, ३५ (७) आयु के स्थिति व अनुभाग ये दोनों मात्र अपवर्तना से नष्ट होते हैं, काण्डकघात से नहीं । पृ. २१ (१०) साता वेदनीय सब शुभ कर्मों में से करता है । पृ. ४७, ४६ १९ (८) द्वीपायन मुनि ने पहले तो अनुत्तर विमानों में आयु बाँधी थी । पृ. २१ (९) संक्लेश से शुभ प्रकृतियों का अनुभाग घात होता है तथा अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग में वृद्धि भी । पृ. ३५, ७२ अशुभ (११) उत्कृष्टत: छह मास तक शोक रह सकता है । (जैसे बलदेव को था) पृ. ५७ (१२) योगवृद्धि से बद्ध कर्मानुभाग में वृद्धि नहीं होती । पृ. ११५ (१३) जीव व कर्म दोनों परतंत्र हैं । पृ. ३६५ (१४) क्षपकश्रेणि में आयु की गुणश्रेणि का अभाव है । पृ. ४३१ शुभम है । वह अतिशय सुख को उत्पन्न Jain Education International धवल पु. १३ : (१) श्रेणि से उतर कर मुनिराज देवों में उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त बाद मिथ्यादृष्टि बन गए। पृ. १४० For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100