Book Title: Dhaval Jaydhaval Sara
Author(s): Jawaharlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 26
________________ १७ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला (२) विभंगज्ञानी (मिथ्यात्वी अवधिज्ञानी) तिर्यंचवमनुष्य असंख्यात जगच्श्रेणि प्रमाण हैं । पृ. ४३५ (३) एक नारकी मर कर अन्तर्मुहूर्त बाद पुन: नारकी बन सकता है । पृ. ३०४ (४) एक भूत मर कर अन्तर्मुहूर्त के लिए मनुष्य बन कर, मर कर पुन: भूत बन सकता है । (पृ. ३०५, १९० और भी देखें धवल ७/१९०-९१) (५) सातवें नरक का नारकी, अन्तर्मुहूर्त के लिए यानी अन्तर्मुहूर्त आयु वाला तिर्यंच बन कर पुन: मर कर उसी सातवें नरक में चला जावे, यह सम्भव है । पृ. ३०४, ३४० (६) नमस्कार सूत्र मंगल सूत्र गौतम स्वामी-कृत हैं । पृ. १२ (७) अवधिज्ञान अर्थ पर्याय कोभी जानता है । पृ. २७ (८) धारणा ज्ञान असंख्यात वर्षों तक (भी) रहता है । पृ. ५४ (९) गुरु-उपदेश बिना भी ज्ञान हो सकता है । पृ. ८२, १५५ (१०) मुनि का भी अकालमरण सम्भव है । पृ. ८९ (११) स्वर्ग का सुख भी संसार का कारण है, राग को छोड़ कर वहाँ सुख है ही नहीं। पृ. १०६ (१२) क्षायिक भाव को भी देशावधि विषय करता है । पृ. ११३ (१३) इन्द्रियज्ञान के द्वारा आत्मा नहीं पकडा जाता: इन्द्रियाँ बाहरी पदार्थ को ही जानती हैं । पृ. ११४ (१४) षट्खण्डागम का अध्ययन मोक्षरूप कार्य करने में समर्थ है । पृ. १३३ (१५) उपदेश के बिना द्वादशांग श्रुत का ज्ञान सम्भव है । पृ. १५५ (१६) गणधर को भी संशय होता है । पृ. २०० (१७) केवली भगवान केवली-समुद्घात को अधूरा नहीं छोड़ते । पृ. ३९४ धवल १०:(१) परभवसम्बन्धी आयुबन्ध के बाद अकालमरण (वर्तमान आयु का) नहीं होता। पृ. २३७, ३३२, २५६ आदि (धवल ६/१६८, २५६) (२) जीव के गमन को योग नहीं कह सकते । सिद्धों के ऊर्ध्वगमन के समय योग नहीं होता । पृ. ४३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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