Book Title: Dhaval Jaydhaval Sara
Author(s): Jawaharlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 23
________________ १४ (२) निंबू में रस नामकर्म के उदय से रस (खट्टा) उत्पन्न होता है । पृ. ५५ (३) तैजस कार्मण शरीर के अंगोपांग नहीं होते । पृ. ७३ (क्योंकि इनके हाथ, पांव, गला आदि का अभाव है) पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला (४) एकेन्द्रियों के हाथ, पांव, नाक, गला आदि नहीं होते, अत: उनके अंगोपांग नहीं होते । पृ. ११२ (५) स्वभाव अन्य के प्रश्न योग्य नहीं हुआ करते हैं । पृ. १४८ (६) ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थान तक एक (समान) ही यथाख्यात संयम होता है । (पृ. २८८, धवल ७/५६७, ज.ध. १३/१८७) (७) ग्रैवेयक वासी देव वीतराग होते हैं (अतिमन्द कषायी) पृ. ४३६ I (८) जिनबिम्बदर्शन से निधत्त व निकाचित रूप मिथ्यात्व का भी क्षय हो जाता है पृ. ४२७-४२८ (९) सभी गतियों में सम्यग्मिथ्यात्व के साथ न प्रवेश होता है, न ही मरण । (१०) नारकी (मर कर) भोग भूमि में नहीं जाते, क्योंकि उनके दान व दान का अनुमोदन नहीं रहता है । पृ. ४४९ 1 (११) सासादन. एकेन्द्रियों में एक मत से उत्पन्न होता है, अन्य मत से नहीं । (मत संग्रह यहाँ लिखा है - पृ. ४६०) (१२) भावसंयम बिना भी द्रव्यसंयम हो जाता है । पृ. ४६५ (१३) जिस गति में, जिस गुणस्थान में आयु कर्म का बंध नहीं होता, उस गुणस्थान सहित निश्चयत: उस गति से मरण भी नहीं हो सकता, ऐसा कषायउपशामकों को छोड़ कर अन्य सब जीवों के लिए नियम है। पृ. ४६३-६४ तथा धवल ८/१४५ (१३) सासादन मिश्र, वेदक सम्यक्त्वी प्रथमोपशम सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त कर सकते । पृ. २०६ धवल ७ : (१) योग क्षायोपशमिक एवं औदयिक भाव है । पृ. ७५ (और भी देखें धवल ७/३१६) (२) सभी औदयिक भाव (गति, जाति आदि) बन्ध के कारण नहीं होते । पृ. १० (३) कषायों में ही प्रमाद व असंयम गर्भित हैं । पृ. १२, १३ (४) उपघात का सदा ही परघात के साथ उदय होता है । पृ. ५७-५८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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