________________
१२
समन्तभद्र- भारती
है । अन्यथा किसी भी वस्तुका अपना स्वतंत्र स्वरूप नहीं बन सकेगा । जैसे कर्ताका स्वरूप कर्मापेक्ष और कर्मका स्वरूप कर्त्रपेक्ष नहीं है तथा बोधका स्वरूप बोध्यापेक्ष और बोध्यका स्वरूप बोधकापेक्ष नहीं है । पर उनका व्यवहार अवश्य परस्पर-सापेक्ष हैं । उसी प्रकार धर्मधर्मी आदिका स्वरूप तो स्वयं सिद्ध है किन्तु उनका व्यवहार परस्पर सापेक्ष होता है । इस तरह इस परिच्छेद में अपेक्षा और अनपेक्षा के विरोधी युगल में भी सप्तभङ्गीको योजना करके लनेकान्तको व्यवस्था की गई है । षष्ठ परिच्छेद :
षष्ठ परिच्छेद में ७६-७८ तक तीन कारिकाओं द्वारा हेतुवाद और अहेतुवादकी एकान्त मान्यताओंमें दोषोद्घाटन करते हुए उनमें सप्तभङ्गीयोजनापूर्वक समन्वय ( अनेकान्तस्थापन) किया गया है ।
कारिका ७६ में सर्वथा हेतुवादसे वस्तुसिद्धि मानने पर प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे वस्तुज्ञानके अभावका प्रसङ्ग तथा आगमसे सर्वसिद्धि स्वोकार करनेपर परस्पर विरुद्ध सिद्धान्तोंके प्रतिपादक वचनोंसे भी विरोधी तत्त्वोंकी सिद्धिका प्रसङ्ग दिया गया है ।
कारिका ७ में पूर्ववत् उभयैकान्तमें विरोध और आवाच्यतैकान्तमें 'अवाच्य' शब्दद्वारा भी उसका निर्वचन न कर सकनेका दोष प्रदर्शित है । इस परिच्छेदको अन्तिम ७८ वीं कारिकामें हेतुवाद और अहेतुवाद दोनोंसे वस्तु सिद्धि होनेका निर्देश करते हुए सप्तभङ्गात्मक अनेकान्त प्रदर्शित किया गया है । कहा गया है कि जहाँ आप्न वक्ता न हो वहाँ हेतुमे साध्यकी सिद्धि की जाती है और उस सिद्धिको हेतु-साधित कहा जाता है तथा जहाँ आप्त वक्ता हो वहाँ उसके वचनसे वस्तुको सिद्धि होती है और वह सिद्धि आगम-साधित कही जाती है । इस प्रकार वस्तु-सिद्धिका अङ्ग उपायतस्व ( हेतुवाद और अहेतुवाद ) भी अनेकान्तात्मक है । सप्तम परिच्छेद :
इस परिच्छेद में ७६ - ८७ तक 8 कारिकाएँ हैं, जिनके द्वारा ज्ञानैकान्त और बाह्यार्थीकान्त आदि एक-एक एकान्तोंके स्वीकार करने में आनेवाले दोषों को दिखलाते हुए निर्दोष अनेकान्तको स्थापना की गई है।