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समन्तभद्र-भारती - अतः विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवत्तिगकत उक्त उल्लेख, अष्टसहस्रीमें आये 'शास्त्रारम्भेऽभिष्टुतस्याप्तस्य मोक्षमार्गप्रणेतृतया...' आदि निर्देश और माप्तपरीक्षागत 'श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्भुतसलिलनिधेः... प्रोत्थानारम्भकाले "शास्त्रकारैः कृतं यत् । स्तोत्रं...', 'इति तत्त्वार्थशास्त्रादौ मुनीन्द्रस्तोत्रगोचरा।' उल्लेखोंसे असन्दिग्ध है कि वे 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' स्तोत्रका कर्ता शास्त्रकारको मानते हैं और 'शास्त्रकार' से उन्हें एकमात्र तत्त्वार्थसूत्रकार आ० गृद्धपिच्छ ही विवक्षित हैं, सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद-देवनन्दि नहीं । विद्यानन्दने अपने सभी ग्रन्थोंमें 'शास्त्रकार' और 'सूत्रकार' पदोंका प्रयोग केवल तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताके लिए किया है । इसी प्रकार तत्त्वार्थ, तत्त्वार्थशास्त्र या नि:श्रेयसशास्त्र शब्दोंका प्रयोग भी उन्हींके तत्त्वार्थसूत्र के लिए हुआ है, व्यापक या अन्य अर्थमें नहीं, यह हम ऊपर देख चुके हैं।
विद्यानन्दके उपर्युक्त उल्लेखोंके अलावा उक्त मङ्गलश्लोकको सूत्रकार-उमास्वामी कृत बतलाने वाला एक अति स्पष्ट, एवं अभ्रान्त उल्लेख और प्राप्त हुआ है । वह निम्न प्रकार है :
'गृद्धपिच्छाचार्येणापि तत्त्वार्थशास्त्रस्यादौ 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादिना अर्हन्नमस्कारस्यैव परममंगलतया प्रथममुक्तत्वात् ।'
गो० जी० म०प्र० टी० पृ० ४ । यह उल्लेख सात-आठसौ वर्ष प्राचीन गोम्मटसार जीवकाण्डको मन्दप्रबोधिनी टोकाके रचयिता सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य अभयचन्द्र ( १२ वों-१३ वीं सदो ) का है। इसमें उन्होंने उक्त मङ्गलस्तोत्रको गृद्धपिच्छाचार्यकृत स्पष्ट लिखा है और उसे तत्त्वार्थशास्त्र ( तत्त्वार्थसूत्र ) के आरम्भमें उनके द्वारा रचा गया बतलाया है। उसे पूज्यपाद-देवनन्दिको तत्त्वार्थवृत्तिका नहीं कहा। इससे प्रकट है कि आजसे सातसौ-आठसौ वर्ष पूर्व भी वह गृद्धपिच्छाचार्यके तत्त्वार्थसूत्रका मङ्गल-स्तोत्र माना जाता था। इस उल्लेखकी एक बात और ध्यातव्य है । वह यह कि प्राचीन समयमें तत्त्वार्थशास्त्र तत्त्वार्थसूत्रको ही कहा जाता था और उससे आचार्य गृदपिच्छ रचित तत्त्वार्थसूत्र ही लिया जाता था। .