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कारिका ३९]
देवागम
कारण है—इसलिए हमारे यहाँ विक्रियाके बनने में कोई बाधा नहीं आती, तो यह कहना अनालोचित सिद्धान्तके रूपमें अविचारित है; क्योंकि कार्यकी सत् और असत् इन दो विकल्पोंके अतिरिक्त तीसरी कोई गति नहीं।) कार्यको यदि सर्वथा सत् माना जाय तो वह चैतन्य पुरुषकी तरह उत्पत्तिके योग्य नहीं ठहरता—कूटस्थ होनेसे उसमें उत्पत्ति जैसी कोई बात नहीं बनती, जिस प्रकार कि पुरुषमें नहीं बनती। दूसरे शब्दोंमें यों कहिये कि जो सर्वथा सत् है उसके चैतन्यकी तरह कार्यत्व नहीं बनता, चैतन्य कार्य नहीं है; अन्यथा चैतन्यरूप जो पुरुष माना गया है उसके भी कार्यत्वका प्रसंग आएगा। अतः जिस प्रकार सर्वथा सत्रूप होनेसे चैतन्य कार्य नहीं है उसी प्रकार महदादिकके भी कार्यत्व नहीं बनता। जब नई कार्योत्पत्ति ही नहीं तब विक्रिया कैसी ? और कार्यको यदि सर्वथा असत् माना जाय तो उससे सिद्धान्त-विरोध घटित होता है; क्योंकि कार्य-कारणभावकी कल्पना करनेवाले सांख्योंके यहाँ कार्यको सत्रूपमें ही माना है' -गगन-कुसुमके समान असत्रूपमें नहीं।'
( यदि यह कहा जाय कि वस्तुमें अवस्थासे अवस्थान्तर होने रूप जो विवर्त है—परिणाम है-वही कार्य है तो इससे वस्तु परिणामी ठहरी ) और वस्तुमें परिणामकी कल्पना ही नित्यत्वके एकान्तको बाधा पहुंचानेवाली है-सर्वथा नित्यत्वके एकान्तमें कोई प्रकारका परिणाम, परिवर्तन अथवा अवस्थान्तर बनता ही नहीं।'
१. 'असदकरणादुपादानग्रहणात्सर्वसंभवाभावात् । शक्तस्य (कार्यस्य) शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम्” ॥ इति हि सांख्यानां सिद्धान्तः।'
-अष्टसहस्री पृ० १८१