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समन्तभद्र-भारती [ परिच्छेद ८ बात नहीं, तो यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि तब पौरुषसे ही वैसे दैवका सिद्ध होना ठहरता है, इसलिये दैवका एकान्त स्थिर नहीं रहता। दूसरे, धर्मसे ही अभ्युदय तथा निःश्रेयस-सिद्धिकी जो एकान्तमान्यता है वह बाधित ठहरती है । और तीसरे, उनके द्वारा मान्य महेश्वरकी सिसृक्षा ( सृष्टि रचनेकी इच्छा ) के व्यर्थ होनेका प्रसंग उपस्थित होता है-अर्थात् सृष्टिकी उत्पत्तिके दैवाधीन होनेसे इस प्रकारके वचनोंका कहना नहीं बनता कि 'यह अज्ञ प्राणी अपनेको सुख-दुःख प्राप्त करने में असमर्थ है, ईश्वरकी इच्छासे प्रेरित हुआ ही स्वर्ग या नरकको जाता है ।' )
पौरुषसे सिद्धि के एकान्तकी सदोषता पौरुषादेव सिद्धिश्चेत् पौरुषं दैवतः कथम् । पौरुषाचेदमोघं स्यात् सर्व-प्राणिषु पौरुषम् ॥८६॥
'यदि पौरूषसे ही सब कुछ सिद्धिका एकान्त माना जाय तो यह प्रश्न पैदा होता है कि पौरुषरूप कार्यकी सिद्धि कैसे ? उसे यदि दैवसे कहा जाय-पुण्य-पापरूप दैवी सम्पत्तिके आश्रित बतलाया जाय तो यह कहना उक्त एकान्तको माननेपर कैसे बन सकता है ? नहीं बन सकता; क्योंकि इससे प्रतिज्ञा-हानिकास्वीकृत एकान्तसिद्धान्तको बाधा पहुँचनेका-प्रसंग उपस्थित होता है तथा उक्त एकान्त स्थिर नहीं रहता। यदि बुद्धि-व्यवसायात्मक पौरुष ( पुरुषार्थ ) की सिद्धिको पौरुषसे ही माना जाय तो सब प्राणियों में पौरुष अमोघ ठहरेगा—किसीका भी पौरुष तब ( बाधक कारणान्तरके न होनेसे ) निष्फल नहीं जायगा-परन्तु यह प्रत्यक्षके विरुद्ध है; क्योंकि समान-पुरुषार्थ