Book Title: Devagam Aparnam Aaptmimansa
Author(s): Samantbhadracharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 177
________________ १०८ समन्तभद्र-भारती [परिच्छेद १० सम्यक्नय होते हैं, उनके विषय अर्थ-क्रियाकारी होते हैं और इस लिये उनके समूहके वस्तुपना सुघटित है। ___ व्याख्या-यहाँ अनेकान्तके प्रतिपक्षी-द्वारा यह आपत्ति की गई है कि जब एकान्तोंको मिथ्या बतलाया जाता है तब नयों और उपनयों-रूप एकान्तोंका समूह जो अनेकान्त और तदात्मक वस्तुतत्त्व है वह भी मिथ्या ठहरता है; क्योंकि मिथ्याओंका समूह मिथ्या ही होता है। इसपर ग्रन्थकारमहोदय कहते हैं कि यह आपत्ति ठीक नहीं है; क्योंकि हमारे यहाँ कोई भी वस्तु मिथ्या एकान्तके रूपमें नहीं है। जब वस्तुका एक धर्म दूसरे धर्मकी अपेक्षा नहीं रखता-उसका तिरस्कार कर देता है तो वह मिथ्या कहा जाता है और जब वह उसकी अपेक्षा रखता हैउसका तिरस्कार नहीं करता—तो वह सम्यक् माना जाता है। वास्तवमें वस्तु निरपेक्ष एकान्त नहीं है, जिसे सर्वथा एकान्तवादी मानते हैं; किन्तु सापेक्ष एकान्त है और सापेक्ष एकान्तोंके समूहका नाम ही अनेकान्त है, तब उसे और तदात्मक वस्तुको मिथ्या कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता। वस्तुको विधि-वाक्यादि-द्वारा नियमित किया जाता है नियम्यतेऽर्थो वाक्येन विधिना वारणेन वा । तथाऽन्यथा च सोऽवश्यमविशेष्यत्वमन्यथा ॥१०६॥ ( यदि कोई यह शंका करे कि वस्तुतत्त्व जब अनेकान्तात्मक है तब वाक्यके द्वारा उसे कैसे नियमित किया जाय, जिससे प्रतिनियत विषयमें लोककी प्रवृत्ति बन सके तो उसका समाधान यह है कि ) अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्व विधिवाक्य अथवा निषेध-वाक्यके द्वारा नियमित किया जाता है। विधि या निषेधंरूप जिस वाक्यके द्वारा वह नियमित किया जाय उसरूप तथा उससे अन्यथा

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