Book Title: Devagam Aparnam Aaptmimansa
Author(s): Samantbhadracharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 181
________________ ११२ समन्तभद्र- भारती [ परिच्छेद १० विशेष में शब्दार्थरूप नहीं है—अभिप्रायमें स्थित विशेषको नहीं जनाता अथवा प्रतिपादित नहीं करता — और इस लिये सत्यरूप न होकर मिथ्या - वाक्य है । अभिप्रायमें स्थित जो विशेष उसकी प्राप्तिका सच्चा लक्षण अथवा चिह्न ' स्याद्वाद' ( स्यात् शब्दपूर्वक वाद - कथन ) है – सामान्य विशेषात्मक वस्तुका जब मुख्यतः सामान्यरूपसे कथन किया जाता है तब उसका विशेषरूप गौण होकर वक्ता अभिप्रायमें स्थित होता है, जिसे साथ में प्रयुक्त 'स्यात्' शब्द व्यक्त अथवा सूचित करता है । और इसलिये 'स्यात्कार' अभिप्रेत-विशेष के जाननेका सच्चा साधन एवं मार्ग है । अभिप्रेत वही होता है जो स्वरूपादि ( स्वद्रव्य-क्षेत्र - कालभाव ) के द्वारा सत् होता है - पररूपादिके द्वारा सत् नहीं ।' व्याख्या - बौद्धोंका कथन है कि विधिरूप सामान्यको कहनेवाला वाक्य भी विशेष ( अन्यापोह ) का ही प्रतिपादन करता है— उसी में उसकी प्रवृत्ति होती है । पर उनका यह कथन संगत नहीं है; क्योंकि इससे अन्यापोह - शब्दका अर्थ सिद्ध नहीं होता । शब्दका वही अर्थ माना जाता है जिसमें उस शब्दकी प्रवृत्ति हो । अन्यापोह में किसी भी शब्द की प्रवृत्ति नहीं होती । ऐसी स्थिति में विधिरूप सामान्यको कहनेवाला वाक्य भी आपके मतानुसार मिथ्या ठहरता है । वास्तवमें वही वाक्य सत्य है जिसके द्वारा अपने अभिप्रेत अर्थ - विशेषकी प्राप्ति होती है और ऐसा वाक्य 'स्यात्' शब्दसे युक्त ही संभव है और उसीसे सत्य ( यथार्थ अर्थ ) की पहचान होती है । क्योंकि वह लोगोंको अभिप्रेत अर्थ - विशेषकी प्राप्ति कराता है । अन्य ( स्यात्कार से रहित ) वाक्योंसे अर्थ - विशेषकी प्राप्ति नहीं होती । यही स्याद्वाद और अन्यवादों में विशेष अन्तर है |

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