Book Title: Devagam Aparnam Aaptmimansa
Author(s): Samantbhadracharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 180
________________ कारिका १११,११२] देवागम १११ नहीं होता तब विशेष-रहित सामान्य ही अथवा सामान्य-शून्य विशेप ही वस्तुका स्वरूप है, इस प्रकारके आग्रह-द्वारा स्व-परको कैसे ठगा जाय ? नहीं ठगा जाना चाहिये। व्याख्या–बौद्धोंकी मान्यता है कि कोई भी वाक्य हों वे सब अन्यापोह-रूप प्रतिषेधका ही प्रतिपादन करते हैं, विधिका नहीं। इस पर आचार्य कहते हैं : वाक्य ( वाणी ) का यह स्वभाव है कि वह अन्य वाक्यों द्वारा प्रतिपादित अर्थका निर्बाधरूपसे प्रतिषेध करता है और अपने विधिरूप अर्थ-सामान्यका भी कथन करता है। यदि केवल अन्यापोहरूप प्रतिषेध ही वाच्य हो तो उक्त प्रकारका वाच्य आकाश-पुष्पकी तरह असत् है। हमें विशेषको छोड़कर केवल सामान्य और सामान्यको छोड़कर केवल विशेष कहीं उपलब्ध नहीं होता। जब उक्त प्रकारका वाच्य उपलब्ध नहीं होता तो हम ऐसा अभिनिवेश करके कि वाक्यके द्वारा स्व ( विधि ) अथवा पर ( प्रतिषेध-अन्यापोह ) ही कहा जाता है, क्यों भ्रामक प्रवृत्ति करें या दूसरोंको ठगें। अतः जिस प्रकार वाक्यके द्वारा केवल विधिका ही नियमन नहीं होता उसी तरह केवल प्रतिषेध ( अन्यापोह ) का भी नियमन नहीं होता। किन्तु उभयका नियमन होता है और यह वाक्य (वाणी) का स्वभाव है। __ अभिप्रेत-विशेषकी प्राप्तिका सच्चा साधन सामान्यवाग्विशेषे चेन शब्दार्थो मृपा हि सा। अभिप्रेत-विशेषाप्तेः स्यात्कारः सत्य-लाञ्छनः ॥११२॥ 'यदि यह कहा जाय कि ( 'अस्ति' जैसा ) सामान्य वाक्य परके अभावरूप ( अन्यापोह ) विशेषमें वर्तता है-उसे प्रति पादित करता है तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि सामान्मवाक्य

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