Book Title: Devagam Aparnam Aaptmimansa
Author(s): Samantbhadracharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 175
________________ १०६ समन्तभद्र-भारती [परिच्छेद १० अशुद्धपर्यायार्थिक, शुद्धनिश्चय, अशुद्धनिश्चय, सद्भूतव्यवहार, असद्भूतव्यवहार इत्यादि। द्रव्याथिकके उत्तरभेद तीन-नैगम, संग्रह और व्यवहार; पर्यायार्थिकके उत्तरभेद चार-ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । इन सप्तनयोंमें प्रथम चार भेद 'अर्थनय' और शेष तीन भेद 'शब्दनय' कहे जाते हैं। इन सबके उत्तरोत्तर भेद असंख्य हैं । संक्षेपमें कहा जाय तो जितने वचनमार्ग हैं-शब्दभेद है तथा अपने-अपने ज्ञानके विकल्प है उतने-उतने नयोंके भेद हैं । नयोंका यह विषय बड़ा ही गहन-गंभीर है । इनके लक्षणादिका विशेष कथन नयचक्रादि ग्रन्थोंसे जानने योग्य है। स्यावाद और केवलज्ञानमें भेद-निर्देश स्याद्वाद केवलज्ञाने सर्वतत्व-प्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् ॥१०॥ 'स्याद्वाद और केवलज्ञान दोनों ( जीवादि ) सब तत्त्वोंके प्रकाशक हैं । दोनोंके प्रकाशनमें साक्षात् और असाक्षात् (परोक्ष)का भेद ( अन्तर ) है-केवलज्ञान जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष इन सात तत्त्वोंका प्रत्यक्षतः एवं युगपत् प्रकाशक है और स्याद्वादरूप श्रुतज्ञान इन पदार्थोका अप्रत्यक्षतः ( परोक्षरूपसे ) क्रमशः प्रकाशक है। इन दोनों ज्ञानोंमेंसे जो किसी भी ज्ञानके द्वारा प्रकाशित अथवा उसका वाच्य नहीं वह अवस्तु होती है।' नय-हेतुका लक्षण सधर्मणैव साध्यस्य साधादविरोधतः । स्याद्वाद-प्रविभक्ताऽर्थ-विशेष-व्यजको नयः ॥१०६॥ 'स्याद्वादरूप परमागमसे विभक्त हुए अर्थविशेषका-शक्य

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