Book Title: Devagam Aparnam Aaptmimansa
Author(s): Samantbhadracharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 172
________________ कारिका १०० - १०२ ] देवागम १०३ हैं— शुद्धि की प्रादुर्भूति सादि और अशुद्धिकी प्रादुर्भूति अनादि है; क्योंकि शुद्धि के अभिव्यंजक सम्यग्दर्शननादिक सादि होते हैं और अशुद्धिके अभिव्यंजक मिथ्यादर्शनादिकी संतति अनादिसे चली आती है । और यह वस्तु-स्वभाव है जो तर्कका विषय नहीं होता - अर्थात् स्वभावमें यह हेतुवाद नहीं चलता कि 'ऐसा क्यों होता है ।" प्रमाणका लक्षण और उसके भेद तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् । क्रमभावि च यज्ज्ञ नं स्याद्वाद - नय-संस्कृतम् ॥ १०१ ॥ ' ( हे अर्हन् भगवन् ! ) आपके मतमें तत्त्वज्ञानको प्रमाण कहा है वह ( तत्त्वरूपसे जाननेरूप ) प्रमाणज्ञान एक तो युगपत् सर्वभासनरूप ( केवलज्ञान ) प्रत्यक्षज्ञान है और दूसरा कमशः भासनरूप ( मति आदि ) परोक्षज्ञान है । जो क्रमशः भासनरूप ज्ञान है वह स्याद्वाद तथा नयोंसे संस्कृत है— स्याद्वादरूप प्रमाण तथा नैगमादि नयोंके द्वारा संस्कारको प्राप्त है- प्रकट होता है ।' व्याख्या- -तत्त्व ( यथार्थ ) रूपसे जाननेवाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है । वह दो प्रकारका होता है— एक अक्रमभावि और दूसरा क्रमभावि । जो युगपत् समस्त पदार्थोंका प्रकाशन करता है वह अक्रमभाव है और वह पूर्णतया प्रमाणरूप होता है । किन्तु जो क्रमशः पदार्थोंका प्रकाशन करता है वह क्रमभावि है तथा वह स्याद्वाद ( प्रमाण ) और नय ( अंशात्मक नैगमादि ) दोनों रूप होता है । प्रमाणोंका फल उपेक्षा- फलमाऽऽद्यस्य शेषस्याऽऽदान - हान-धीः । पूर्वा वाज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य स्वगोचरे ॥ १०२ ॥

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