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समन्तभद्र-भारती [ परिच्छेद ३ प्रमाणबलसे ) प्रमाणबलसे तो वस्तु ही अवस्तुताको प्राप्त होती है, प्रकियाके विपरीत हो जाने अथवा बदल जानेसे, अर्थात् जब किसी वस्तुकी स्वद्रव्यादिचतुष्टयलक्षण-प्रक्रिया, जो कि कथंचिद्रूपको लिये हुए होती है, बदल जाती है—परद्रव्य-क्षेत्र-कालभावकी अपेक्षाको धारण करती है—तब वह वस्तु ही अवस्तु बन जाती है। जैसे स्वरूपसिद्ध घटके पटादि-पररूपोंकी अपेक्षापटादिके किसी भी रूपको घट माननेकी दृष्टिसे-अघटपना है ।
(यदि यह कहा जाय कि वस्तुको ही अवस्तु बतलाना परस्परविरूद्ध है; क्योंकि वस्तु और अवस्तुकी स्थिति एक-दूसरेके परिहाररूप है-वस्तु अवस्तु नहीं होती और न अवस्तु कभी वस्तु बनती है तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि अभाव-वाचक शब्दोंके वचन-द्वारा भी भावका अभिधान ( कथन) होता है; जैसे 'अब्राह्मणको लाओ' इस वाक्यमें 'अब्राह्मण' शब्द ब्राह्मण-वस्तुके अभाव ( निषेध ) का वाचक होते हुए भी ब्राह्मणसे भिन्न अन्य क्षत्रियादिवस्तुके अभावका वाचक नहीं किन्तु उनके भावका ही वाचक है और इसलिये उक्त वाक्यके-द्वारा यह समझा जाता है कि 'ब्राह्मणको नहीं किन्तु क्षत्रियादिकको बुलाया जा रहा है;' तदनुसार ही क्षत्रियादिकको लाकर उपस्थित किया जाता है। इस तरह ब्राह्मण कोई वस्तु है उसीको 'अब्राह्मण' शब्दके-द्वारा कथंचित् अवस्तु कहा गया है, सर्वथा अभावरूप अवस्तु नहीं; और इसलिक्षे अवस्तुका आशय यहाँ अविवक्षित वस्तु समझना चाहिये । अविवक्षित ( गौण ) वस्तु विवक्षित ( मुख्य ) वस्तुके अस्तित्व ( भाव )के बिना नहीं बनती ( मुख्यादृते गौण-विधिर्न दृष्ट: ) और न स्वयं अस्तित्व-विहीन होती है। इसीसे अर्हन्मतानुयायी स्याद्वादियोंके यहाँ वस्तुको ही