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समन्तभद्र-भारती [परिच्छेद ६ दृष्टिसे; कथंचित् अवक्तव्या सिद्धि है-उक्त दोनों धर्मोंके सहार्पित ( युगपत्कथन ) की दृष्टिसे। शेष 'आपेक्षिकी' और 'अवक्तव्या' आदि भंगोंको भी इसी प्रकार घटित करके यहां भी सप्तभंगीप्रक्रियाकी योजना कर लेनी चाहिये, जो कि नयविशेषकी दृष्टिसे पूर्ववत् अविरुद्ध है।
इति देवागमाप्त-मीमांसायां पंचमः परिच्छेदः ।
षष्ठ परिच्छेद
सर्वथा हेतुसिद्ध तथा आगमसिद्ध एकान्तोंकी सदोषता सिद्धं चेद्धेतुतः सर्वं न प्रत्यक्षादितो गतिः । सिद्धं चेदागमात्सर्व विरुद्धार्थ-मतान्यपि ॥७६॥
'यदि ( केवल अनुमानवादी बौद्धोंके मतानुसार ) सब कुछ (एकान्ततः ) हेतुसे ही सिद्ध माना जाय-हेतुके बिना किसी भी कार्य-कारणादिरूप तत्त्वकी सिद्धि-निश्चितिको अंगीकार न किया जाय तो प्रत्यक्षादिसे फिर कोई गति-सिद्धि, व्यवस्थिति अथवा ज्ञानकी प्राप्ति-नहीं बन सकेगी ( और ऐसा होनेपर हेतुमूलक अनुमानज्ञान भी नहीं बन सकेगा; क्योंकि अनुमानके लिये धर्मीका साधनका तथा उदाहरणका प्रत्यक्षज्ञान होना आवश्यक है, धर्म आदिके प्रत्यक्षज्ञानके बिना कोई अनुमान प्रवर्तित नहीं होता। अनुमान-ज्ञानके लिये अनुमानान्तरकी कल्पना करनेसे अनवस्था-दोष उपस्थित होता है और कहीं कोई भी अनुमान