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कारिका ४८ ]
देवा
भावकी अपेक्षा निषेध किया जाता है, न कि असत्का । सर्वथा असत् पदार्थ तो विधि-निषेधका विषय ही नहीं होता - जो पदार्थ परद्रव्य-क्षेत्र-काल- भावकी अपेक्षाके समान स्वद्रव्य - क्षेत्र - काल-भावकी अपेक्षासे भी असत् है वह सर्वथा असत् है, उसकी विधि कैसी ? जिसकी विधि नहीं उसका निषेध नहीं बनता; क्योंकि निषेध विधि पूर्वक होता है । और इसलिये जो सत् होकर अपने द्रव्यादिकी अपेक्षा कथंचित् वक्तव्य है उसीके ( परद्रव्यादिकी अपेक्षा निषेध होनेसे ) अवक्तव्यपना युक्त ठहरता है । और जो सत्-पदार्थ स्वद्रव्यादिकी अपेक्षा कथंचित् विशेषण - विशेष्यरूप है उसीके ( परद्रव्यादिकी अपेक्षा ) अविशेष्य- विशेषणपना ठीक घटित होता है । अतः एकान्तसे कोई वस्तु अवक्तव्य या अविशेष्यविशेषणरूप नहीं है, ऐसा बौद्धोंको जानना चाहिये ।'
अवस्तुकी अवक्तव्यता और वस्तुकी अवस्तुता श्रवस्त्वनभिलाप्यं स्यात्सर्वान्तैः परिवर्जितम् । यस्त्वेवाऽवस्तुतां याति प्रक्रियाया विपर्ययात् ॥ ४८||
- किसी भी प्रमाणका
'जो सर्वधर्मोसे रहित हैं वह अवस्तु हैविषय न होने से — और जो अवस्तु हैं वह ( ही सर्वथा ) अनभिलाप्य ( अवाच्य ) है न कि वस्तु; क्योंकि जो वस्तु है वह प्रमाणके द्वारा परिनिष्ठित ( प्रतिष्ठित ) होती है और इसलिये सर्वथा अनभिलाप्य नहीं होती ।'
' ( यदि यह कहा जाय कि सकल- धर्मोंसे रहित निरूपाख्य वस्तु स्याद्वादियोंकेद्वारा स्वीकृत नहीं है तब उनका यह वचन कि 'अवस्तु अनभिलाप्य है' युक्त नहीं जान पड़ता, तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि सर्वधर्मोसे रहित अवस्तुका अनभिलाप्यरूपमें कथन पर - परिकल्पनामात्र से सम्बन्ध रखता है, न कि