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समन्तभद्र-भारती [परिच्छेद ३ ही किया, उस द्वितीय चित्तके हिंसाकर्मसे बन्धनको प्राप्त होता है और वन्धको प्राप्त हुए उस तृतीय चित्तके भी तत्क्षण नष्ट हो जानेपर उसे उस पापकर्मके बन्धनसे मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होती-तब मुक्ति किसकी होती है ? क्या अबद्ध-चित्तकी भी मुक्ति बनती है ? नहीं बनती। मुक्तिके बन्धपूर्वक होनेसे जब बन्धन ही नहीं तब बन्धनसे छुटकारा पानेरूप मुक्ति कैसी ? इस तरह बौद्धोंके यहाँ कृतकर्मके फलका नाश और अकृतकर्मके फल-भोगका प्रसंग उपस्थित होता है—अर्थात् जिसने कर्म किया वह उसके फलका भोक्ता नहीं होता और जिसने कर्म नहीं किया उसे उस कर्मका फल भोगना होता है, जो कि एक उपहासका विषय है। इसके सिवाय जब बद्ध-चित्तकी मुक्ति नहीं होती तब मुक्तिके लिये यम-नियमादिका अनुष्ठान व्यर्थ ठहरता है।'
नाशको निर्हेतुक माननेपर दोषापत्ति अहेतुकत्वान्नाशस्य हिंसाहेतुर्न हिंसकः । चित्त-सन्तति-नाशश्च मोक्षो नाष्टाङ्ग-हेतुकः ॥५२॥
'(क्षणिक एकान्तवादी बौद्धमतके अनुसार नाश स्वयं होता है, उसका कोई कारण नहीं होता ), जब नाशका कोई कारण नहीं होता तब हिंसक हिंसाका हेतु नहीं ठहरता—किसीको हिंसक कहना नहीं बनता। इसी तरह चित्त-सन्ततिके नाशरूप जो मोक्ष माना गया है वह भी अष्टाङ्गहेतुक नहीं बनता। बौद्धोंके यहाँ मोक्ष ( निर्वाण ) को जो सम्यक्त्व, संज्ञा, संज्ञी, वाक्कायकर्म, अन्तर्व्यायाम, अजीव, स्मृति, और समाधि इन आठ हेतुओंसे हुआ बतलाया जाता है वह नाशके निर्हेतुक होनेसे उसी तरह बाधित ठहरता है जिस तरह सुगतके सर्वज्ञता और असर्वज्ञता दोनोंका कथन विरुद्ध ठहरता है।'