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समन्तभद्र-भारती [ परिच्छेद १ होनेसे वस्तुतत्त्व है', निरपेक्ष नयोंका विषय 'मिथ्या एकान्त' और सापेक्ष नयोंका विषय 'सम्यक् एकान्त' है। और यह सम्यक् एकान्त ही प्रस्तुत अनेकान्तके साथ अविनाभावसम्बन्धको लिये हुए है । जो मिथ्या एकान्तके उपासक होते हैं उन्हें ही 'एकान्तग्रहरक्त' कहा गया है, वे ही 'सर्वथा एकान्तवादी' कहलाते हैं और उन्हें ही यहाँ 'स्वपरवैरी' समझना चाहिये । जो सम्यक् एकान्तके उपासक होते हैं उन्हें 'एकान्तग्रहरक्त' नहीं कहते, उनका नेता ‘स्यात्' पद होता है, वे उस एकान्तको कथंचित् रूपसे स्वीकार करते हैं, इसलिये उसमें सर्वथा आसक्त नहीं होते
और न प्रतिपक्ष-धर्मका विरोध अथवा निराकरण ही करते हैंसापेक्षावस्थामें विचारके समय प्रतिपक्ष-धर्मकी अपेक्षा न होनेसे उसके प्रति एक प्रकारकी उपेक्षा तो होती है किन्तु उसका विरोध अथवा निराकरण नहीं होता । और इसीसे वे 'स्व-पर-वैरी' नहीं कहे जा सकते। अतः स्वामी समन्तभद्रका यह कहना बिल्कुल . ठीक है कि 'जो एकान्तग्रहरक्त होते हैं वे स्वपरवैरी होते हैं।' ____ अब देखना यह है कि ऐसे स्व-पर-वैरी एकान्तवादियोंके मतमें शुभ-अशुभ-कर्म, कर्मफल,—सुख-दुःख, जन्म-जन्मान्तर ( लोकपरलोक ) और बन्ध-मोक्षादिकी व्यवस्था कैसे नहीं बन सकती। बात बिल्कुल स्पष्ट है, ये सब व्यवस्थाएँ चूँकि अनेकान्ताश्रित हैं—अनेकान्तके आश्रय बिना इन परस्पर विरुद्ध मालूम पड़नेवाली सापेक्ष अवस्थाओंकी कोई स्वतन्त्र सत्ता अथवा व्यवस्था नहीं बन सकती-, इसलिये जो अनेकान्तके वैरी है—अनेकान्तसिद्धान्तसे द्वेष रखते हैं-उनके यहाँ ये सब व्यवस्थाएं सुघटित
१. निरपेक्षा नया मिथ्याः सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ॥ -देवागम १०८