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समन्तभद्र-भारती [परिच्छेद २ परस्पर विरोधकी कल्पना करते हैं; (३) सर्वथा शून्यवादी बौद्ध, जो भेद और अभेद दोनों से किसीको भी परमार्थ सत्के रूपमें स्वीकार नहीं करते किन्तु उन्हें संवृति-कल्पनाका विषय बतलाते हैं; और (४) उभयवादी नैयायिक, जो भेद और अभेद दोनोंको सत्रूपमें मानते तो हैं, परन्तु दोनोंको परस्पर निरपेक्ष बतलाते हैं; ये चारों ही यथार्थ वस्तु-तत्त्वका प्रतिपादन करनेवाले सत्यवादी नहीं हैं । इन सबकी दृष्टिसे इस कारिकाके अर्थका स्पष्टीकरण' निम्न प्रकार है:-) _ 'अभेद सत् स्वरूप ही है—संवृति ( कल्पना ) के विषयरूप नहीं; क्योंकि वह भेदकी तरह प्रमाण-गोचर है । भेद सत्रूप ही है-संवृतिरूप नहीं, प्रमाण-गोचर होनेसे, अभेदकी तरह । भेद
और अभेद दोनों सत् रूप हैं-संवृतिके विषयरूप नहीं, प्रमाणगोचर होनेसे, अपने इष्ट तत्त्वकी तरह; और इस प्रकार एक अन्य पक्ष भी संगृहीत होता है; क्योंकि उन दोनोंको संवृतिरूप बतलानेवालों एवं वस्तुको समस्त धर्मोंसे शून्य माननेवालों ( शून्यवादियों ) का भी सद्भाव पाया जाता है। ( यहाँ इन पक्षोंके अनुमानोंमें जो-जो उदाहरण है वे साध्य-साधन-धर्मसे विकल ( रहित ) नहीं है; क्योंकि भेद, अभेद, उभय और अनुभय एकान्तोंके माननेवालोंमें उसकी प्रसिद्धि स्याद्वादियोंकी तरह पाई जाती है । ) इस तरह हे वीर भगवन् ! आपके यहाँ एक वस्तुमें भेद और अभेद दोनों धर्म परमार्थसत्के रूपमें विरुद्ध नहीं है, मुख्य-गौणकी विवक्षाके कारण प्रमाण-गोचर होनेसे अपने इष्टतत्त्वकी तरह । और इसलिये सामर्थ्यसे यह अनुमान भी फलित - १. यह स्पष्टीकरण . श्रीविद्यानन्दाचार्यने अपनी अष्टसहस्री-टीकामें "इति कारिकायामर्थसंग्रहः' इस वाक्यके साथ दिया है।