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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद २
होनेसे हो गया और ज्ञेयका अभाव ज्ञानाभाव के कारण बन गया; क्योंकि ज्ञानका जो विषय हो उसे ही ज्ञेय कहते हैंज्ञानके अभाव में बाह्य तथा अंतरंग किसी भी ज्ञेयका अस्तित्व ( हे वीर जिन ! ) आपसे द्वेष रखनेवालोंके यहाँ सर्वथा पृथक वैकान्तवादी वैशेषिकादिकोंके मत में - कैसे बन सकता है ?उनके मत से उसकी कोई भी समीचीन व्यवस्था नहीं बन सकती । वचनोंकों सामान्यार्थक मानने में दोष
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सामान्यार्थी गिरोऽन्येषां विशेषो नाऽभिलप्यते । सामान्याभावतस्तेषां मृषैव सकला गिरः ॥ ३१॥ 'दूसरोंके यहाँ - बौद्धोंके मतमें-वचन सामान्यार्थक हैं; क्योंकि उनके द्वारा ( उनकी मान्यतानुसार ) विशेषकायाथात्म्यरूप स्वलक्षणका - कथन नहीं बनता है । ( वचनोंके मात्र सामान्यार्थक होनेसे वे कोई वस्तु नहीं रहते - बौद्धोंके यहाँ उन्हें वस्तु माना भी नहीं गया — और विशेष के अभाव में सामान्यका भी कहीं कोई अस्तित्व नहीं बनता, ऐसी हालत में सामान्यके भी अभावका प्रसंग उपस्थित होता है ) सामान्यका अवस्तुरूप अभाव होने से उन (बौद्धों) के सम्पूर्ण वचन मिथ्या ही ठहरते हैं - वे वचन भी सत्य नहीं रहते जिन्हें वे सत्यरूप से प्रतिपादन करते हैं । '
उभय तथा अवक्तव्य एकान्तोंकी सदोषता विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वाद न्याय-विद्विषाम् । वाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नाऽवाच्यमिति युज्यते ॥ ३२ ॥
' (अद्वैत और पृथक्त्व दोनों एकान्तोंकी अलग-अलग मान्यता में दोष देखकर ) यदि अद्वैत ( एकत्व ) और पृथक्त्व दोनोंका एकात्म्य ( एकान्त ) माना जाय तो स्याद्वाद न्यायके विद्वेषियोंके